प्रारब्ध
मुद्दतों बाद कुछ कदम
खुद के लिए थे
खुरदरी सी सतह पर ।
कब से यूँ ही अनजाने
भटक रहे थे
किसी अनकही राह पर ।
नरम से कुछ अहसास
ज़रूर थे कभी हथेली की
गर्म सी सतह पर ।
असमय छलक गया
एक छुपा सा भाव
पनीली आँखों के कोरों पर ।
कह नही पाये अकसर
दायरों के अबोले शब्द
आते रहे जो लफ्जो के पोरों पर ।
ऐसे ही रहना है दसकों
इस जीवन से उस जीवन
बिना कहे इस अनवरत यात्रा पर ।
कभी कुछ पड़ाव
विश्राम के आयेगें अगर
ठहर जाना तब मन के भावो पर ।
राहे चाहे किसकी
किसको कभी मिलती है
कुछ बातें छोड़ दें गर प्रारब्ध पर ।
नीलम पांडेय “नील”
5/4/17