प्रायश्चित
भास्कर ने उषा के साथ आँखें खोली ही थी कि चिडि़यों की चहचहाहट ने सम्राट अशोक को नींद से जगा दिया।
“बस एक और विजय, और फिर समस्त आर्यावर्त मेरा हो जाएगा।” इसी सोच ने अशोक मौर्य के चेहरे पर मुस्कान ला दी। तभी शिविर में सेनापति ने प्रवेश किया।
“देवनाम्प्रिय अशोक, सेनापति का प्रणाम स्वीकार करें।”
“युद्ध के क्या समाचार हैँ?” गंभीर मुद्रा में अशोक ने पूछा।
“सुखद समाचार हैँ सम्राट! कलिंग अब हमारा है। यद्यपि कलिंगवासियों ने अद्भुत शौर्य प्रदर्शन किया, परंतु हे प्रियदर्शी! हमारी शूरवीरों से सुसज्जित सेना ने कलिंग को तहस-नहस कर दिया। अब वहाँ विलापरत् स्त्रियों के अतिरिक्त कोई पुरुष शेष नहीं बचा।”
“क्या कह रहे हो, सेनापति?” विजयी मुस्कान अचरजता से भर गई सम्राट की।
“क्या संपूर्ण कलिंग युद्ध करने आ गया था!” सम्राट ने चकित होकर पूछा।
“कदाचित् ऐसा ही लग रहा है सम्राट; क्योंकि युद्ध क्षेत्र शत्रुओं के शवों से पटा हुआ है। एक लाख से भी अधिक क्षत-विक्षत शव हैं और एक लाख से भी अधिक शत्रु सैनिकों को बंदी बनाकर उन्हें राज्य से निर्वासित कर दिया गया है। वे भी गंभीर रूप से घायल हैं सम्राट, आक्रमण का पुनः विचार भी नहीं करेंगे।”
सेनापति गर्वित होकर बखान करता जा रहा था परंतु इधर सम्राट विचलित दिखाई पड़ रहे थे। विकलता उनके मुख पर दिखाई दे रही थी। हथेलियों को आपस में रगड़ते हुए वे इधर-उधर विचरण कर रहे थे।
अचानक उनका चेहरा सपाट हुआ और उन्होंने सेनापति से रणक्षेत्र की ओर चलने के लिए कहा।
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रणक्षेत्र की विभित्सता अपने चरम पर थी। यह दृश्य देखकर सम्राट की आँखें पथरा गई। जिसके नामसे ही लोग थरथराने लगते थे, आज उसी विश्व विजेता व क्रूर अशोक की टाँगें काँप रही थी।
सरविहीन शव, धड़विहीन शव, कौवे व गिद्धों द्वारा नोचते शव; रक्त की नदियों का सैलाब मानो टूट पडा़ था। मैदान की भूमि तो अदृश्य ही थी। इतना रक्त-पात हुआ था मानो कोई नर-पिशाच काल बनकर निर्दोष मानवों पर टूट पडा़ था।
इस दृश्य ने सम्राट अशोक के हृदय को द्रवित कर दिया। वे मैदान में ही मूर्च्छित हो गए और जब उनकी मूर्च्छा टूटी तो वे विलाप करने लगे।
“हे प्रभु! मुझ आततायी को क्षमा नहीं किया जा सकता। मैंने सदा निर्दोष मनुष्यों का रक्त बहाया है। मेरी साम्राज्य विस्तार की लालसा ने न जाने कितने स्त्रियों की मांग को उजाडा़ है। हे प्रभु मेरा पश्चाताप तो संभवतः व्यर्थ ही है। मैं तो एक क्रूर हत्यारा हूँ, मेरा प्रायश्चित स्वीकार नहीं किया जा सकता।”
एक महान सेनानायक आज रणक्षेत्र के मध्य करुण विलाप कर रहा था। दिशाएँ भी मानों ठहर गई थी। आँसुओं ने एक क्रूर शासक को दयालू हृदय का प्रजापालक स्वामी बना दिया।
निगोध नामक भिक्षु ने सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म की दिक्षा दी।
और इस तरह एक महान योद्धा धम्म का संरक्षक बन गया।
सोनू हंस