प्रादुर्भाव सृष्टि का
प्रादुर्भाव सृष्टि का ————–आदि का अंत,अंत का होना तथा नवीन
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निविड़ तम व प्रकाश प्रतिद्वन्दि
कहीं क्या था द्वंद का अंत!
कुक्षि में इनके जाने कौन
मौन सा पड़ा हुआ था बंद.
तिमिर में तम का न कोई था ठौर
वहाँ जम जाता आ के और.
जहाँ न उत्सर्जित होता किरण
जहाँ न फूटा था अबतक सौर.
अति ही शांत,धीर,गम्भीर,नि:स्वरा
चतुर्दिक विस्तृत था सब व्योम.
कहीं होता न स्पंद था प्रतीत
नहीं कोई सूर्य न भौम न सोम.
विलक्षण कुछ तो वहाँ था रहा
उदित होने को सज्ज प्रगाढ़.
किसी हिम में था ज्वाला बंद
कि तम में ही ज्योति प्रकाण्ड.
था कहीं सूक्ष्मतम तत्व
ज्ञान से परे बड़ा विज्ञान.
ज्ञात को था न कुछ भी अज्ञात
और अज्ञात को सब कुछ ज्ञात.
कोई था सूक्ष्म कोई अति उच्च
परस्पर बद्ध अत्यंत अवरुद्ध.
किसे था पता व्यूह था सजा
और हो रहा था भीषण युद्ध.
सशंकित थे वे सारे स्पर्द्धी
सशंकित एवम् स्वयं संग्राम.
विभक्त होकर थे लड़ रहे
एक होने को आठों याम.
और इनके ही चहूँओर विवृत था
अंधकार अति सजग और सचेष्ट.
इसे न था कभी कोई आभास
तिरस्कृत होगा पल-पल अनवेद. (अनवेद=अनिमंत्रित)
किन्तु, वह था ही इतना हठी
अपने विस्तार को लेकर स्पष्ट.
सका था मात्र ही उसको रोक
हुआ कोई आदि-कण जब नष्ट.
नष्ट होकर आदि यह जगत
पुनर्रचना में हो जाता तल्लीन.
यही विध्वंस तथा निर्माण चक्र है
आदि का अंत,अंत का होना तथा नवीन.
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प्रादुर्भाव सृष्टि का————- तम का संकल्प
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इसी ही काल-खंड के मध्य
तम का होता आया विस्तार.
इसी ही खण्ड में उठा संकल्प
किरण भर उठता है हुँकार.
चतुर्दिक विस्तृत तम का अम्बार
स्फुलिंग का संघटित संघर्ष.
कणों का आपसी योग-वियोग
आज की सृष्टि का है उत्कर्ष.
तम में कोई तत्व निहित होता है
अथवा शुन्यता थी अत: तम था.
यह एक जटिलता आकर आकार
ले लेगा संज्ञ को क्या यह कम था?
कोई मन था कोई तन था
या था कुछ विदेह का धर्म.
किस संज्ञा से परिभाषित
तम था भ्रम या तम था कर्म.
जल,थल,समतल और शिखर या
गह्वर कुछ भी नहीं कहीं था.
नहीं कोई दर्शक,दिक्दर्शक नहीं
श्रवण,स्पर्श,दृश्य या कथ्य कहीं था.
अंधकार में थी नीरवता,
निःस्वर अंधकार अप्रीतिकर.
तम था भ्रमित और भ्रम तम से
अजब अचंभित अचल अगोचर.
नहीं बोध न जाना-चिन्हा
कुछ था जो अबोध नहीं था.
संज्ञ न था संज्ञान नहीं था
ज्ञान का हर अवरोध यहीं था.
कौन तपस्वी सा तप करता
उस अंधकार में था कोई.
तरुण,तरल,कृष तृषा-भार से
उस अनादि में सही-सही.
उस तप-बल से,उस तप-बल का
आना था क्या परिणाम नया.
उस तप-बल में चिंगारी था
उस तप-बल में हिम-खंड कठोर.
शक्ति कहीं विश्राम कर रहा
सुप्त प्रगाढ़ था निद्रामग्न.
स्यात् स्वप्न में था उकेरता
ब्रह्म-विन्दु का अद्भुद अंश.
इतना गहन था गुंथा हुआ यह
तम के तन्तु में भी तम था .
इस तम के अन्त-हृदय में गुंफित
कोई मानवीय ही, तन-मन था.
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प्रादुर्भाव सृष्टि का ———————स्वर हुई तरंगित ध्वनि बनकर
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अंधकार के परिसर से जब
निकल चला यह मानव-मन.
इसी परिधि पर बैठा था किरण,
किरण का अति क्षीण लोचन.
उस परिसर में जन्म-मृत्यु का
ध्वंस और निर्माण-नियति का.
नहीं कोई आभास,स्तुति,या ही प्रार्थना
अबतक तरंग या गति न था.
था यह अति आश्चर्य कि रेखांकित
था तम व ज्योति गहन अलग.
उद्दांत था मन,उद्वेजित तन
इस तम का वृतांत द्वैविध्य भरा.
दोनों थे अरि,दोनों थे मित्र,सहचर,साथी.
गुण,धर्म भिन्न शाश्वत सच है
पर,अलग था न अस्तित्व कभी.
दोनों अध्यस्त, दोनों अध्यात्म
दो सा अध्याय एक ग्रन्थ-घटी.(घटी=घड़ा)
सहसा ही तम संकुचित हुई विस्मित होकर
विस्फोट प्रचंड का स्वर फैला.
यह लगी भागने पृष्ठ दिशा हो व्यथित.
पराभूत सा, सब हुआ कसैला.
नीरवता अब थी भंग हुई
स्वर हुई तरंगित ध्वनि बनकर.
अब अंधकार के पास लगा था
किरण धुंध सा बन,छनकर.
भयत्रस्त हुआ तम था अत्यंत
अस्तित्व ही प्रश्न सा हुआ खड़ा.
आचारभ्रष्ट क्यों हुआ ज्योति
तम रहा भांप था विमूढ़ पड़ा.
अवतरित हुआ था भूतकाल
तम के पूर्वज के इंद्रजाल.
जाना सिमट विस्तार तथा
नियति बुनता यूँ भ्रमजाल.
यह परिवर्तन, मत मूढ़ बनो
संकेत पुन: तुम्हारा अविर्भाव.
गुण-धर्म तुम्हारा न हुआ क्षरित
विचलित क्यों करता मनोभाव!
उर्जा की तरंगें भिन्न-भिन्न
है वसन,वदन में सदा घुली.
उत्सर्जन जो करता प्रकाश
वह तेज-पुंज तुझमें भी ढली.
वर्तमान यह यदि है सिकुडन
तेरा भविष्य विस्तृत मंडल .
आनन्द उठा उत्सवित हो जा
उत्त न कर होगा होगा मंगल.
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प्रादुर्भाव सृष्टि का—————– वह्नि-विस्फोट
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कर स्थिर अंधकार को ऐसे कवि
लाँघ चला सीमांत रेख,उत्तप्त-देह.
कवि का देह विलुप्त हुआ अंगारों में
मन किन्तु प्रफुल्लित, जो था विदेह.
तप:सिद्ध था तपित ताप व अनुपमेय
अपरिमित-अनन्त अवर्णनीय.
हो अग्रसर अग्रान्शु की ओर प्रस्फुटित
था हुआ जहाँ विस्फोट बना जो अमिय. (अग्रान्शु=केंद्र-बिंदु/ अमिय=अमृत)
यह ताप झेलता हुआ कवि चला
वहाँ क्या हुआ और क्यों हुआ.
था रचना का विध्वंस या कि
यह नव रचना का कोई सर्ग हुआ.
था भ्रमित करे अध्ययन यहाँ इतिहास
या कि भूगोल या कि फिर गणित.
खोजे अपना अस्तित्व ज्ञान-विज्ञान
पद्दम सा सुन्दरता-युक्त रत्न से जड़ित.
उस परम काल का वह कण-क्षण
था स्यात् परम सत्ता का यजन. (यजन=यज्ञ होना)
कोई चिन्ह न था,परिमाण न था
परिणाह न था पर था अर्हन. (परिणाह=विस्तार,लम्बाई,चौड़ाई,/ अर्हन =सम्मान)
वह अनिर्वचनीय ऊर्जा स्वयं
स्पर्श,रूप,रंग,गंध,गुण-धर्म हीन.
वह स्थिर प्रकंपित सृष्ट असृष्ट
इस क्षण को प्रकट उस क्षण विलीन.
कैसे कर नामकरण कर दूँ
किसी राशि,नक्षत्र,ग्रह का न पता.
महागर्भ से जनित सृजित श्री
स्वयं गर्भ सृजन की आतुरता.
यह महत्वपूर्ण वह्नि-विस्फोट
किस कारण हुआ प्रयोजन क्या?
विक्षोभ हुआ,संयोग हुआ,क्या हुआ?
था रचना-निर्माण का तांडव क्या?
कवि के मन का प्रश्न,प्रत्युत्तर
कवि का कौतुक भी प्रकट हुआ.
किसी विन्दु का था विस्फोट या
कणों के तरंग-रूप का चटक हुआ.
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड संपीड़ित होकर
विन्दु एक में स्थित था हुआ.
या रहा तरंगित व्योम में विस्तृत
मौलिक कण सा रचित हुआ.
कहता विज्ञान-अनुमान कि
संपीड़न का ही था विस्फोट हुआ.
अरबों वर्ष हैं बीत गये जब
छिन्न-भिन्न वह कोट हुआ. (दुर्ग)
ब्रह्मा के वर्ष थे पूर्ण हुए
सुप्तता से, चेतना निकल पड़ी.
सुप्त अवधि के अब कर्म,क्रिया
सृष्टि-साकार को विकल बढ़ी.
कवि जब लाँघ तम की रेखा
था विवर विन्दु से प्रकट हुआ.
तब व्योम में शिव-शिव करते
उस महाकाल के निकट हुआ .
उस शिव ने जब संकल्प किया
और खुद का अर्चन, यजन किया.
फिर महाकाय ब्रह्मा, विष्णु का
महानुभाव ने सृजन किया.
जब निराकार साकार हुआ
उद्दत हो गये ले अहम् भाव.
‘मैं श्रेष्ठ’ कहा और द्वंद्व हेतु
करने लगे वे थे कांव-कांव.
‘हे श्रेष्ठ! अहम् को त्यागें,होवें श्रेष्ठ.
श्रेष्ठता निश्चित होने प्रस्तुत है यह द्वंद.
जहाँ पराजय में भी है विजय
वैसा परमानन्द द्वंद ज्यों छंद.’
उस शिव ने ब्रह्मा,विष्णु को
है ज्ञात कि यह आदेश दिया.
विवर से उत्थित वह्नि-पुंज के
अध्ययन का था निर्देश दिया.
उस वह्नि-पुंज के कण-कण का
अध्ययन अनन्त सा चला किया.
एक गूढ़ प्रश्न के समाधान हेतु
था काल, काल तक चला किया.
वह ज्ञान अनन्त अनवरत रहा.
और काल परिभाषित हो न सका.
सब शिव में अंतर्निहित जो है
वह लुप्त,गुप्त शिव में ही रहा.
यह व्योम,विवर,नभ विस्तृत कितना
है रिक्त,जीर्ण या अदृश्य जगत.
अदृश्य जगत की संरचना,सृष्टि-तंतु
सब शिव में सदा है समाधिस्थ.
शिव आदि,अनादि,अनन्त,अदृष्ट
शिव ही समक्ष,शिव ही परोक्ष.
शिव से प्रारंभ,शिव से ही अंत.
शिव ही माया,शिव और मोक्ष.
शिव सृष्टि के हैं समीकरण
और समीकरण के सारे कण.
हर कण के शिव ही आदि अंश.
और आदि अंश के शिव हैं प्रण. (संकल्प)
शिव सूक्ष्म,अति सूक्ष्म,अत्यधिक सूक्ष्म
सूक्ष्मतम-सूक्ष्म न जाने कितने सूक्ष्म.
नियन्त्रण के सारे गुण,धर्म समाहित
इसी अंश में शिव ही इतने सूक्ष्म.
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प्रादुर्भाव सृष्टि का—————– शिव
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और शिव ही होते स्थूल, कणों का क्रम
करके संग्रहन हुआ करता है जब संयोग.
संयोजन स्वयं का करते शिव
विभाजन स्वयं का और वियोग.
दिशा,उपदिशा,काल;काल का क्रम
काल का कर्म,काल का धर्म,
काल की वृति, काल का भ्रम
स्थापित करते व काल का मर्म.
काल का जो भी है आयाम
क्षणिक से क्षण,क्षण से आठों याम.
स्वयं को परिवर्तित कर काल
भूल जाते शिव हर विश्राम.
काल न गत,आगत,वर्तमान
काल अनवरत, नित्य, अविराम.
काल नि:श्ब्द,निनाद-विहीन.
काल की गति शिव का निष्काम.
काल अपरिमित,अपरिभाषित,शुन्य
काल शिव का करता निर्माण
और गढ़ता,रचता युग,कल्प
वही शिव काल-खंड का मान.—
प्रादुर्भाव सृष्टि का—————————-शिव-सृष्टि की कथा
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अब आ शिव परिभाषित कर लें
वह सूक्ष्म और वह मूल अनंत.
उस मूल से शिव वह मूल ही शिव
उससे प्रारंभ उसमें ही अंत.
शिव अगणित खंड-विखंड हुए
वह परम सत्य से सत्व हुए.
वह तत्पर,प्रस्तुत हुए,तात्विक
सप्त सुर हुआ व शिव अर्थज्ञ हुए. (प्रयोजन जानने वाला)
रचना का प्रथम प्रयोजन क्या
हो ज्ञात हेतु इस, उस शिव ने.
मंथन,स्पंदन,उद्वेलन,विश्लेषण को
मथा समाधि में हर शिव ने.
वह ऋषि करता अप्रमाणित है
अनायास पिंड कोई फटा और
अनायास एक संयोग मात्र है
इस ब्रह्मांड का ये यहाँ ठौर.
सर्वप्रथम विकर्षण,आकर्षण
वह तप्त तेज और सुप्त-तेज ( तेज का विपरीत)
उर्जा अर्जन फिर और विसर्जन
उद्भव कुछ करने को निश्तेज.
गुरूतर गुरुत्व अर्पण-तर्पण,
तन्मय शिव शौर्य और सौन्दर्यशील.
अतिरिक्त सृजन कर नेत्र तिर्यक्
गुण-अवगुण खुद ही लिया लील.
विकृत शिव रूप ग्रहण करते
नव संरचना नव स्वरूप धरते.
वह तरल कठोर वह अदृश्य वायु
वह सुक्ष्म विराट हर कुछ करते.
शिव का ही विखंडन हुआ किया
शिव का ही संयोजन हुआ किया.
शिव का ही सृजन है हुआ किया
पालन, परिवर्तन भी हुआ किया.
ब्रह्मांड बाँधने आकृतियों में
ब्रह्मा विष्णु को प्रेरित कर
शिव ने स्वरूप विस्तार किया
और क्षुद्र किया उद्वेलित कर.
जो अंधकार सा आच्छन्न है
शिव का यह अदृष्ट है शक्ति जगत.
आयाम में इस कण, विद्दुतकण (अचिन्ह-उर्जा)
इस दृश्य जगत का देह विगत.
सब दृश्य जगत होकर नगण्य
इस अदृश्यता में होता विलीन.
पुन: पुन: आवर्तित हो शिव-चक्र में
आत्मोत्सर्ग कर होते हैं लीन.
शिव ने सुक्ष्मोत्तम को आकृत कर
उसका सब विधि-विधान रचा.
कर्म,धर्म; परिणाम कर्म के
धर्म के भी हर आयाम रचा.
उत्तरोत्तर संवर्धित होना, होकर
नव कण में स्वरूप ग्रहण करना.
आत्मानंद की अनुभूति शिव तक
शिव ने निर्विघ्न वहन करना.
अगणित कण अनन्त राशि सहसा ही
विवर-व्योम में योगैश्वर्य सा प्रस्फुटित हुआ.
शिव ने प्रस्तावित कर स्वयं को
प्रस्तुत किया तो गणना था तब उदित हुआ.
क्रम का पता नहीं पर,लोकोत्तर
गणित वहीं था सृजित हुआ.
अजस्र स्रोत उर्जा का उन अनन्त कणों से
स्फुलिंग बन,बन गति स्रवित हुआ.
अतिशय घर्षण आकर्षण और विकर्षण
संयोजन,विघटन से स्फुलिंग जाग्रत.
चंचल हो, होकर व विह्वल वे शिव-कण
शिव ने विवर जब किया ध्वस्त.
भौतिक की परिभाषा पंच तत्व
स्थूल धरा,तरल द्रव्य वारि निर्मल,
व्हनिमय तप्त शक्ति,तृष्णातुर नभ
और वायु के उदर में उर्वर तेज,विकल.
यहीं नियोजित हुआ आगत भविष्य
जहाँ व्यक्त हो आज खड़े हम.
इन सारी परिभाषाओं के परिवर्तन हम
विधि-विधान हर गणना से घड़े हुए हम.
विवर ध्वस्त हो गया व्योम हो मुदित
प्रसारित अदम्य वेग से प्रारंभिक कण.
एक स्रोत से कण विभिन्न गुण-धर्म अलग
अस्तित्व अस्थिर छंद-बद्ध था पर, कम्पन.
गति विभिन्न ठहराव अलग अविराम भ्रमण
कल्पों तक चलना था यह क्रम.
शिव ब्रह्म में होकर परिवर्तित ब्रह्मा को
दीक्षित करने उद्ध्त हुए पिपीलिका सा श्रम.
विष्णु को संरक्षण करने करना था
शिव को अब जाग्रत व आह्लादित.
हर कुछ जो होगा जो होना था अग्र-काल
शिव को करना था त्वरित ही सम्पादित.
शिव अंधकार-रूप में स्थित सर्वत्र
न दिशा न क्षण,कण क्या शुन्य प्रबल?
अव्याकृत प्रकृति शिव का विचरण
क्या वहन कर रहा था सोहम् हलचल.
यह संज्ञाहीन संज्ञान परम, न तप्त न शीतल
न तरल विरल,उत्कृष्ट अदभुद उत्तम स्वरूप.
बीज रूप से स्थित देव होकर विभक्त भगवान हुए.
कोटि सूर्य को धारण कर ज्योतित स्तूप.
कण-कण विभक्त संज्ञाओं का नामकरण.
उस ज्योतित स्तूप में था भिन्न-भिन्न.
पर,उनका परिवर्तन मूल रूप उनका है शिव
प्रारंभ यहीं से होना है सब कुछ अविच्छिन्न.
प्रादुर्भाव सृष्टि का———–ऊर्जा और उसके रूप
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वे कण,कण से टकराते थे,लुप्त हुए से जाते थे
यही लुप्तता हर कण को उर्जा में करता परिवर्तित.
हर दिशा प्रचंड प्रकाशित था ज्यों कोटि सूर्य
सहसा ही गगन पर हुए उदित.
चतुर्दिक विस्तृत गोलाकार तरंगित गति
करता था गमन, शमित होता जाता अंधकार.
और अब रंग ले रहा जन्म विविध वे वर्ण
अगणित वर्णों के अंक लगा जाता सा पारावार.
और तब शिव स्वर में हुए सज्ज सजग प्रस्तुत
ऊँ….. का वह प्रिय अनुभूत आनन्द
नाद आदि वह गूंजा नीरव व्योम-पुंज में
अनुप्त था प्रतिबिंबित सा आवृत वह छन्द.
उस स्वर ने सारा स्वर फिर रचा कुछ
तीव्र,कटु कुछ मोहक तंतु के कम्पन सा.
वर्तुलाकार वह स्वर फैला नीरवता विचलित हो
संपीडित हो सिमट रहा था पाशन सा. (बंधन)
स्वर के संयोजन हेतु यंत्र जायेंगे फिर रचे
सृष्टि में जब जीवन का होना होगा नर्तन.
तब सब ही होगा व्यक्त शब्द की रचना
होगी मुखर और उस ईश्वर का उत्कीर्तन. (घोषणा)
शब्दों में आकर्षण होगा और विकर्षण
यही शब्द फिर शास्त्र रचेगा ईश्वर का इतिहास रचेगा.
मूल रूप से यह आकर्षण और विकर्षण
रचा किया है ब्रह्म-तत्व और सदा रचा करेगा.
ईश्वर के अस्तित्व प्रश्न के घोर चिन्ह से
आच्छादित हैं तर्क,कुतर्क से इतै,उतै है.
किन्तु,सुवासित सत्य उत्कृष्ट सत्य
आकार ज्ञात तो नहीं किन्तु,वह आज इतै है.
ब्रह्मांड अचानक क्योंकर उठा चमक मणि सा
कहाँ सुप्त था किस गह्वर में किस बंधन में?
आच्छादित संशय से हो अनाच्छादित वह होगा
तब भी जो प्रकार हो ईश्वर होगा वह हर कण में.
ऋषियों ने क्या कहा अलिखित ईश-वन्दन में
नहीं कभी था, शिव-सत्ता ही प्रथम हुआ था.
कौन व्योम से हुए प्रकट थे,इसमें तो वह
नहीं कभी थे, ऐसा किस विध सक्षम हुआ था.
इसी व्योम में व्याप्त व्योम है, हो सकता है
उस सत्ता को करो प्रदर्शित प्रण-प्राण से.
महाशंख गंगाओं के महाजाल में महाव्योम वह ( आकाश गंगा जैसी भिन्न रचना)
कौन प्रयोजन कहाँ अवस्थित हैं प्रशांत से.
शिव ब्रह्मा में निहित ब्रह्म है,संकल्पित मन.
यही कल्प का करना जानें प्रस्तुतिकरण है.
मंथन मन का स्थूलता से शैशव तन का
सम्पूर्णता के रच जाने का सूक्ष्म चरण है.
शिव के जितने नाम, रूप में उतने शिव हैं
हर शिव का कर्म भिन्न,गुण-धर्म भिन्न है.
वे मिल जाएँ तो केवल शिव हैं
अलग हुए तो शिव हैं,शिव हैं,शिव अभिन्न हैं.
शिव-कण कोई आकर्षण का गुण ले प्रस्तुत
कोई कण है किए समाहित अहो,विकर्षण.
और सर्वथा उदासीन सा कोई कण है,व्यर्थ नहीं पर,
हर सत्ता का अंशधारी है अद्भुद मिश्रण.
शक्ति संयोजन और विभाजन ,गुणक,वियोजन
हर धूमिलता में, उज्ज्वलता हर में शाश्वत होता.
जितना है आलोड़न कण में घर्षण कण में
उस विधि रचना रच जाने को आश्वस्त होता.
ताप प्रखर उत्सर्जित करता रश्मि-पुंज है
रश्मि-पुंज आलोकित करता शेष जगत है.
विविध रंग,वर्ण विविध इस रश्मि-पुंज में
जन्म ग्रहण कर रमणीक होता,सदा अनत है.
कण का क्षण में होता परिवर्तन श्रेष्ठ शक्ति में
सामर्थ्य,बल,उर्जा बढ़ता उतरोत्तर असीमित होता.
हो विक्षुब्ध कण तप्त ताप का अस्थिर होता
गतिशील हो दामिनी बन विस्तारित होता.
यूँ कि विरल हो जाता है सब चक्रवात सा
एक भंवर बन सप्त लोक में विचरण करता.
होता प्रतीत सब अस्त-व्यस्त है अंतहीन सा.
स्वकर्म को स्फुर्तित होता कण नियन्त्रण करता.