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20 Dec 2017 · 4 min read

“प्रहार – विचारों से सुधारों तक”

सुबह का समय हो और सर्दी का मौसम तो रजाई का आनंद चरम सीमा पर होता हैं। परन्तु आज रविवार नहीं था, इसलिए मुझे अपनी कर्मभूमि के लिए घर से निकल जाना था। तो मेरे लिए फ़िलहाल रजाई का परित्याग आवश्यक था। रजाई तो आज भी अपने निश्छल प्रेम भाव से अपनी सभी कलाओ के साथ मेरी सेवा में उपस्थित थी, परन्तु आज मैं स्वयं ही उसकी सेवा और अधिक समय तक लेने में असमर्थ था। इसलिए रात को मुलाकात के वादे के साथ मैने रजाई को अलविदा कहा और तैयार होकर घर से निकल पड़ा।
मेरा सम्पूर्ण शरीर गर्म कपड़ो से ढका था। परन्तु सर्दी थी की किसी विरोधी सैनिक की भांति मेरे मेरे शरीर का कवच हीन अंग तलाशती और फिर उस पर प्रहार कर देती। सर्दी के कारण मेरा बुरा हाल था। पैदल चलते चलते मैं बस स्टॉप तक पहुंच चुका था। जहाँ से मेरे मित्र और मुझे आगे की यात्रा साथ तय करनी थी। परन्तु वो अभी तक नहीं आया था सर्दी के मौसम में देर होना स्वाभाविक हैं। इसलिए उसे कॉल किये बिना ही मैंने उसका इंतजार करना उचित समझा।
वहाँ कुछ लोग अपने बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने आये थे। कुछ माँ बाप तो बच्चों को स्कूल जाने के लिए ऐसे मनुहार कर रहे थे, मानो बच्चे उनके पालन पोषण हेतु काम पर जा रहें हो। और आज कल के बच्चें भी इतने चतुर की इसी के अनुकूल व्यवहार कर रहें थे।
तभी मेरी निगाह अचानक दूसरी ओर पड़ी, जहाँ एक बच्चा पीठ पर प्लास्टिक का गन्दा सा थैला लिए पता नहीं किस ओर बढे जा रहा था। उसकी कमीज में केवल दो या तीन ही बटन ही रहें होंगे जो उसके वक्ष स्थल तक को पूर्णतः ढक सकने में असमर्थ थे। पैंट की बनावट उसके अनुकूल नहीं थी और कमर पर तो पैंट को शायद किसी रस्सी की सहायता से बांधा गया था। घुटने के पास फटी हुई पैंट किसी फैशन का प्रदर्शन नहीं, बल्कि उसकी गरीबी का प्रतीक थी।
पिछले दिनों सोशल मिडिया पर देखी गयी तस्वीर अचानक मेरी आँखों के सामने उतर आई। जिसमें दो बच्चों को इस प्रकार दिखाया गया था – एक बच्चा स्कूल बैग लेकर स्कूल जाते हुए और दूसरा बच्चा प्लास्टिक का गन्दा सा थैला लेकर कूड़ा बीनने जाते हुए,और तस्वीर के नीचे लिखा था यदि तकदीर से शिकायत हैं तो बस्ता बदल कर देख लीजिये। शायद ये स्कूल बैग लेकर जाते हुए बच्चे के लिए रहा होगा। तस्वीर को कभी शब्दों की आवश्यकता नहीं होती, वो स्वयं बोलती हैं। परन्तु इस तस्वीर पर कुछ शब्द अंकित थे, जिसके बाद ये तस्वीर बोल नहीं रही थी, बल्कि चीख रही थी ,प्रहार कर रही थी और प्रचार कर रहीं थी हमारी असफलता का। हमारे समाज की यह विडम्बना हैं की हम सोचते बहुत ज्यादा है और करते कितना हैं ये आप भी जानते हो।
उस बच्चे से ज्यादा मजबूर और गरीब कौन होगा जिसने दो निवालों की कीमत अपने बचपन से चुकाई है। यदि भारत का भविष्य कहे जाने वाले बच्चे सडकों पर कूड़ा बीनने का कार्य करेंगे तो भारत के आने वाले कल की तस्वीर क्या होगी, आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं।किसी भी व्यक्ति से उसकी जिंदगी के सबसे खूबसूरत समय में लौट जाने को कहा जाये तो वो अपने बचपन में लौट जाना चाहेगा। परन्तु ज़रा सोचिये क्या बड़ा होने पर इस बच्चे का भी इस सवाल पर यही जवाब होगा।
मैं सोच रहा था की भगवान ने जिस मिट्टी से मेरी काया बनाई है क्या इसकी काया भी उसी मिट्टी से बनी है। नहीं… नहीं, इसकी काया उस मिट्टी से बनी हुई नहीं हो सकती। क्योकिं जिस मौसम में सर्दी के कारण मेरी काया का बुरा हाल था, उसी सर्दी के मौसम में वो किसी वीर सैनिक की भांति अपनी कर्म भूमि की ओर बढे जा रहा था।
आप सब ने अपनी जिंदगी में कभी न कभी कूड़े के इर्द गिर्द ऐसे बच्चों को कुछ ढूंढते हुए देखा होगा। इन्हे देख कर आपके जहन में कुछ विचार भी अवश्य आयें होंगे, हो सकता है आपने दुःख भी प्रकट किया हो। परन्तु आपने इनके लिए किया कितना ये तो आप ही जानते होंगे। इन बच्चों को आपके विचारों की नहीं, बल्कि सुधारों की आवश्यकता हैं। मैं मानता हूँ की किसी भी परिवर्तन अथवा सुधारों का प्रारम्भ विचारों से ही होता हैं और विचारों के बिना सुधार संभव नहीं, परन्तु विचार यदि आवश्यक हैं तो कर्म अति आवश्यक हैं।
मैं उसे तब तक देखता रहा जब तक वो मेरी नज़रों से ओझल नहीं हो गया अब मेरी नजरें उसे देख सकने में असमर्थ थी परन्तु वो मेरे जहन में छोड़ गया कई सवाल जिनका जवाब ढूंढ पाना मेरे अकेले के लिए संभव नहीं है।

कुमार अखिलेश
देहरादून (उत्तराखण्ड)
मोबाइल नंबर 09627547054

Language: Hindi
Tag: लेख
2 Likes · 311 Views
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