प्रहरी, संवेदनहीन होता है
प्रहरी, संवेदनहीन होता है
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परिधि में प्रविष्ट होते ही गुंजायमान,
चंट बादल की चपलता में पाशबद्ध,
अमेय निश्छलता संदीप्त,
स्वयंभू आदित्य समझता है,
ऊर्ध्वगामी, वृहत नेत्रों से कांति बिखेरता,
संशयवश, स्वयं ही दीप्तिमान बन जाता है।
अज्ञात स्पर्श से अनजान
चाँद, कर्तव्य निभाते
टिमटिमाती आहट में उलझा,
नादान सा, कभी बगलें झाँकता
तो दिवसावसान से प्रफुल्लित
कभी पारद सा हलकता,
शीघ्रता में प्रतीत होता,
लहराती-बलखाती
कल-कल सी किलकाती,
नदियों पर डोरा डोरे डालता
पार्श्ववर्ती की भाँति अनुकरण करता है।
चाँदनी की निरंतर झरती झड़ी,
ऊर्ध्वरेता प्रतिहार के प्रति
स्वकीया की मुग्धता का अंतर्बोध कराती है।
रात्रि के निर्जन पथ पर
अंतर्द्वंद्व के तुमुलनाद की वृष्टि करता,
अजेय जग को अपनत्व की
दूधिया से स्नान कराता रहता है।
‘प्रहरी, संवेदनहीन होता है’,
तथापि, मर्मज्ञ, अनुभूतियों के लिबास पहन रखा है।
जग के कौतुक, कौतूहल को उकसाते हैं,
संतरी, अमित निगाहों से शून्य सी सृष्टि
की कहानी बाँच रहा है।
…“निश्छल”