रिश्ते
ये रिशते भी बड़े अजीब होते है
कभी किसी के तो कभी किसी के करीब होते है
तुतलाते तो माँ के जुबा मिलते ही महबूब के करीब होते है
लड़खड़ाते तो पिता के जवां होते ही दोस्तों के करीब होते है
क्यों रिश्ते इतने अजीब होते है, चाहे न चाहे रिश्ते अजीब होते है
सुना है वक़्त है बदलाव का रिश्तों के भटकाव का
इक रिश्ते में कई रिश्ते छुपे चले जाते है
जिन्हे ढूंढते है आसपास वो दूर चले जाते
पर रिश्ते तो रिश्ते ही कहलाते है
कभी अपने ही पराए तो कभी पराये अपनोंकी पहचान दे जाते है
रिश्तों के झंझावात में जीवन सारा जाता है, फिर भी रिश्तों को समझ नही पाता है
आदमी रिश्तों के मझधार में बहता चला जाता है, कभी डुबता तो कभी उतरता है
रिश्ते निभाते निभाते खुद को भूल जाता है, फिर भी रिश्तों को समझ नहीं पाता है
रिश्ते तो रिश्ते कहलाते हैं पर कोई समझ नहीं पाता है