बड़े अच्छे दिन थे।
न अपनी फिक्र , न घर की चिंता,
रात मस्त सोते,पूरा अपना दिन था।
जो मन आए ,जिसमे मस्ती हो जाए,
करते वही जो खुद के मन को भाए।
चाहें पिताजी की डांट पड़ जाए,
थे मस्तमौला , जब बचपन के दिन थे
बड़े अच्छे दिन थे ,बड़े अच्छे दिन थे।
देर रात खेलते,अंधेरे में खेलते,
बड़ी बड़ी बातों से ,सबको पेलते।
बड़ी मजेदार वो डांट,फटकार थी,
पड़ती थी जो हमको खेलते खेलते।
थे कितने हम भोले ,कितने हम सच्चे,
थे बहुत सुखी जब व्हाट्सएप के बिन थे।
बड़े अच्छे दिन थे ,बड़े अच्छे दिन थे।
गर्मियों की छुट्टी में , नानी के यहां जाना,
सत्तू में शक्कर घोल ,उंगलियों से खाना।
वो संतरे की सोलह गोली ,वो खट्टी इमली,
वो लब्दो का स्वाद , गुठलियां गटक जाना,
पेट में बेर का पेड़ उगना कहकर बड़ों का डराना।
वो कुरकुरे की पुड़िया में खिलौनों का आना,
भाई बहन का इक दूजे को मोटा,मोटी कह चिढ़ाना।
थे कितने हम सच्चे जब अक्ल की डाढ़ के बिन थे,
बड़े अच्छे दिन थे ,बड़े अच्छे दिन थे।
वो रेत के महल ,वो नकली रूपये,
वो कागज की नाव , मुट्ठी भर कंचे।
वो गुल्ली डंडा,माचिस की तास के पत्ते,
वो कागज का जहाज ,वो कागज की बंदूक।
वो बर्फ टुकड़े का खेल, ज्यादा समय मुंह में रखना,
वो ब्लैक व्हाइट टीवी ,आगे बैठ देखने को लड़ना।
थे कितने हम अच्छे जब मोबाइल के बिन थे,
बड़े अच्छे दिन थे ,बड़े अच्छे दिन थे।
बिना एसी,कूलर के सुकून की नींद थी,
वो सूरज की किरणे, भरपूर डी विटामिन थी।
वो कुएं का पानी, रोशनी लालटेन थी,
मुर्गों की बांग ही सबके लिए अलार्म थी।
‘दीप’ कितने हम स्वस्थ थे जब प्रदूषण के बिन थे,
बड़े अच्छे दिन थे ,बड़े अच्छे दिन थे।
बड़े अच्छे दिन थे ,बड़े अच्छे दिन थे।
बड़े अच्छे दिन थे ,बड़े अच्छे दिन थे।
-जारी
-कुल’दीप’ मिश्रा