प्रभाव
कभी-कभी लगता है समय थम सा गया है।
प्रकृति अब तक जो चलायमान थी रुक सी गई है।
मन में उठती तरंगे अब शांत सी हो गई है।
ह्रदय में द्वेष, प्रेम, आसक्ति , आक्रोश , प्रतिकार, अहंकार सब भाव लुप्त हो गए है।
चारों दिशाओं में एक निःशब्द सा वातावरण निर्मित हुआ है।
पशु-पक्षी भी मूकदर्शक बनकर रह गए हैं।
मानस पटल पर एक शून्य सी अनुभूति होने लगी है।
अभिव्यक्ति के स्वर कहीं खो से गए है।
क्या यह वर्तमान व्याप्त विभीषिका का प्रभाव है ?
जिसने मानव की सोच को पंगु बनाकर उसे मृत्यु की कल्पना के तंद्रातिमिर मे ढकेल दिया है।