प्रथम मिथिलानी लोकगायिका और बिहार के लोकगीतों की स्वर-कोकिला: पद्मश्री विंध्यवासिनी देवी
विंध्यवासिनी देवी को ‘’बिहार कोकिला’’ भी कहा जाता है जिन्होंने न केवल बिहार के लोकगीतों को अपनी आवाज दी बल्कि उनका संकलन भी किया। विंध्यवासिनी देवी का जन्म 5 मार्च 1920 को मुजफ्फरपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम जगत बहादुर था। जन्म के समय ही उनकी माताजी का देहांत हो गया था।
विंध्यवासिनी का लालन-पालन और उनकी शीक्षा-दीक्षा उनकी नानी के घर हुआ। उनके नाना भजन गाता थे। विंध्यवासिनी भी उनके साथ बैठकर भजन गातीं। यहीं से उनका मन संगीत में रम गया और 7 वर्ष की उम्र तक आते-आते वह लोकगीतों के गायन में सिद्ध हो चुकी थीं। नाना के प्रोत्साहन से गुरु क्षितीश चंद्र वर्मा से सानिध्य में उनकी संगीत में विधिवत शिक्षा आरंभ हुई।
मात्र 11 वर्ष की आयु में सहदेश्वर चंद्र वर्मा से विंध्यवासिनी का विवाह हुआ। श्री वर्मा पारसी थियेटर में संगीत निर्देशक थे। इसलिए ससुराल में भी उन्हें संगीत का वातावरण मिला। 1945 में विंध्यवासिनी का पहला सार्वजनिक कार्यक्रम हुआ।लेकिन उस समय मिथिलानी को सार्वजनिक कार्यक्रम में गीत गायन करना बहुत बड़ी बात थी,अलोचना होने लगी देखिये उनकी बेटी नटुआ बजा कार्य करै छै, लेकिन यह जल्द प्रंशसा में बदल गई, और उसके बाद
पटना आने के बाद उन्होंने हिन्दी विद्या पीठ, प्रयाग से विशारद और देवघर से साहित्य भूषण की उपाधि प्राप्त की और फिर पटना के आर्य कन्या विद्यालय में संगीत शिक्षिका की रूप में नौकरी शुरू की। 1949 में लड़कियों की संगीत शिक्षा के लिए उन्होंने विंध्य कला मंदिर की स्थापना की। इस संस्थान को वह अपना मानस पुत्री कहती थीं।
1948 में विंध्यवासिनी देवी द्वारा निर्मित संगीत रूपक ‘मानव’ को जबर्दस्त ख्याति मिली। बिहार सरकार की अनुशंसा पर उसे अनेक बार मंचित किया गया। उनके इसी संगीत रूपक की वजह से आकाशवाणी के तत्कालीन महानिदेशक जगदीश चंद माथुर का ध्यान विंध्यवासिनी देवी की ओर आकृष्ट हुआ और उन्होंने औपचारिकताओं की सीमा तोड़कर बिहार की इस कला प्रतिभा को आकाशवाणी के पटना केंद्र में लोकसंगीत संयोजिका के पद पर नियुक्त किया। 1979 तक वे इसी पद पर कार्यरत रहीं।
मगही, मैथिली और भोजपुरी संगीत में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें 1974 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनकी कला सेवाओं और उपलब्धियों को देखते हुए संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली ने अपनी सदस्यता सौंपी। गणतंत्र दिवस के उत्सवों में भी उन्होंने कई बार सांस्कृतिक दल का प्रतिनिधित्व किया।
विंध्यवासिनी देवी फिल्में में भी सफल रहीं। फिल्मों में उन्होंने अपनी शुरुआत मगही फिल्म ‘भैया’ से की, जिसमें संगीत निर्देशन चित्रगुप्त का था और गीत के बोल विंध्यवासिनी देवी के थे। उन्होंने मैथिली फिल्म कन्यादान के लिए संगीत निर्देशन और गीत लेखन का भी कार्य किया।इसके अलावा यहाँ के लोकगीत पर आधारित संगीत-नृत्य रुप के रचना आ प्रसारण किया, उसमें में कुछ प्रमुख है -वर्षा मंगल, ‘सामा-चकेवा’, ‘जट-जटिन’, ‘सुहावन सावन’, विवाह मंडप’, ‘नन्द पर बाजे बधैया’, ‘जनमे राम रमैया, ‘रामलीला, ‘राधा ऊधो संवाद’, ‘जमुना तीरे बाजे बेंसुरिया’, ‘रासलीला, ‘आयल बसंत बहार, चांदनी चितवा चुरावे’, ‘कान्हा संग खेलब होरी”, ‘संदेशा’, ‘सावन उमड़े बदरिया ‘चौहट’, झिझिया’, ‘डोमकच, ‘बड़ो बराइन’, ‘पंवडिया’, ‘वर्धमान महावीर’, भगवान बुद्ध’, ‘वैशाली महिमा ‘बटगमिनी’, ‘बेटी की विदाई, ‘सावन आया’, ‘संयुक्त स्वयंवर तथा ‘जय माँ दुर्गे’ आदि। इस सब संगीत नृत्य रुपकन में बिहार के पारपारिक और देवीजी के स्वरचित लोकगोत के भरमार हैं , जो लगभग 5000 ऊपर है लोग इनके गीत दिवाने हुआ करते थे जब पटना और लखनऊ से मैथिली सप्ताहिक रेडियो कार्यक्रम
आती थी बैसकी ,गीतनाद, लोकगीत आदि और एक सुमधुर आवाज आती थी ,हम मिथिलाक बेटी किछ गीत नाद सुनू लोक रेडियो चिपक जाते थे
फणीश्वरनाथ रेणू के उपन्यास ‘मैला आंचल’ पर बनने वाली फिल्म ‘डागडर बाबू’ के लिए आर.डी. बर्मन के निर्देशन में दो गीत लिखे थे,