#प्रथम प्रयास छू लिया आकाश
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★ #प्रथम प्रयास छू लिया आकाश ★
मेरे मित्र अमृतलाल वर्मा, जो कि आज सुप्रसिद्ध ज्योतिषी हैं, उनका अनुज कृष्ण उस दिन मेरे साथ था। तब सिने-खलनायक जीवन के सुपुत्र अभिनेता किरणकुमार जैसा दिखता था हमारा कृष्ण।
हम दोनों नगरदर्शन करते हुए पुराना बाज़ार से निकलकर जब दरेसी मैदान के पूर्वी छोर पर पहुंचे तो देखा कि दूर दूसरे छोर पर कुछ लोग नीचे बिछी दरी पर और उनके सामने लकड़ी के एक तख़्त को मंच बनाकर दो जने बैठे हैं। उत्सुकता जगी कि यह क्या हो रहा है? हम दोनों उधर को चल दिए।
लुधियाना के दरेसी मैदान की एक विशेषता यह भी है कि किसी समय पूरे नगर में दशहरा उत्सव केवल यहीं मनाया जाता था। तब यह मैदान बहुत बड़ा हुआ करता था क्योंकि आज इसमें जितने भी भवन आदि दिखते हैं तब यह नहीं थे। और उस दिन भी आज की अपेक्षा यह मैदान विस्तृत था। यह ईस्वी सन् उन्नीस सौ तिहत्तर की बात है।
पास पहुंचने पर जाना कि कवि-सम्मेलन हो रहा है। मंच पर संचालक महोदय विराजमान थे। एक कवि के कविता पाठ के उपरांत वे दूसरे का नाम पुकारते तो नीचे बैठे श्रोताओं में से ही कवि महोदय जाकर अपनी रचना पढ़ते।
वहाँ किसी ध्वनिविस्तारक यंत्र का प्रबंध न होने के कारण श्रोतागण आपस में सटकर बैठे थे। तब भी पीछे तक स्वर बहुत मद्धम आ रहा था। ऐसे में एक कवि अपनी रचना पढ़ चुकता तो पिछली पंक्ति से एक-दो श्रोता उठ जाते। मैं और कृष्ण थोड़ा खिसककर उनके किए रिक्त स्थान पर थोड़ा आगे बढ़ जाते। कुछ समय के उपरांत कृष्ण बोला, “वीर जी (भ्राताश्री), चलो चलते हैं।”
“नहीं, मुझे भी अपनी कविता सुनानी है”, मैंने अपना निश्चय बताया तो वो बोला कि “यदि ऐसा है तो अपना नाम लिखवाइए वहाँ।”
मैं उठा और मंच के पीछे जाकर संचालक महोदय से निवेदन किया कि “तनिक समय मिलेगा क्या? मैं अपनी नज़्म (कविता) सुनाना चाहता हूँ।”
संचालक महोदय दयालु थे। बोले, “बहुत विलंब से आए आप, यहीं बैठ जाइए मेरे पास। इनके तुरंत बाद आपको समय दे दूंगा। लेकिन अत्यल्प।”
कविता-पाठ कर रहे कविवर जब अपनी कह चुके तो संचालक महोदय ने मेरे नाम की घोषणा करते हुए साथ में यह भी जोड़ दिया कि समय की कमी के चलते यह अपनी ‘संक्षिप्त रचना’ सुनाएंगे।
मेरे हाथ में कागज़ की एक पर्ची तक न थी। उन दिनों कुछ ऐसा हो रहा था कि मैं एक गीत अथवा कविता लिखता तो उसे कुछ दिन गुनगुनाता रहता और फिर एक दिन कुछ नया लिख लेता।
इसके पहले कि मैं किसी भी कवि-सम्मेलन के मंच पर अपनी पहली कविता का पाठ आरंभ करता पिछली पंक्ति से तीन-चार श्रोता उठ चुके थे।
मेरी आँखों में कुछ दिन पहले का दृश्य तैर गया। रामलीला के मंच पर उस दिन सीता स्वयंवर का मंचन हो रहा था। चार राजकुमारों के बाद राजा जनक के संवाद और तदुपरांत लक्ष्मण का गर्जन निश्चित था। परंतु, हुआ ऐसा कि दूसरे राजकुमार के संवाद भी अभी अधूरे ही थे कि बिजली चली गई। निदेशक महोदय श्री रामप्रकाश कपूर ने जनक बने कलाकार से कहा कि वे अपने संवाद कहना आरंभ करें।
मंच पर केवल एक गैस लैम्प का प्रकाश था। पंडाल में बैठे दर्शक तो क्या मंच के नीचे बैठे ढोलक-बाजेवाले भी नहीं सुन पा रहे थे कि राजा जनक क्या कह रहे हैं? तभी निदेशक महोदय हमारे गुरु ‘कपूर भ्राताश्री’ ने मुझे पुकारा। मैं लक्ष्मण के रूप में वहाँ उपस्थित था। वे बोले, “उठ, खड़ा हो जा और अपने संवाद बोल।”
ठसाठस भरे पंडाल के अतिरिक्त आसपास के घरों की छतों पर भी लोग बैठे थे। खूब लंबे-चौड़े पंडाल के अंत में मैंने अपने एक परिचित जगदीश मारवाह का चाय का ठेला लगवा दिया था। उस दिन की लीला समाप्ति पर जगदीश ने बताया कि मेरा एक-एक शब्द वहाँ तक स्पष्ट सुनाई दे रहा था।
और आज, मैंने पूरे सुर लय और ताल में कविता पाठ नहीं, कवितागायन आरंभ किया।
“मायूस दिल है नम हैं पलकें”
पिछली पंक्ति में जो लोग उठकर खड़े हुए थे वे ठिठककर रुक गए।
मैंने फिर से तान छेड़ी,
“मायूस दिल है नम हैं पलकें
सांसों से उठता धुआँ”
जो उठकर खड़े हुए थे वे बैठ गए तब मैं आगे बढ़ा
“जो खेल खेला है हमसे तूने
किसको था इसका गुमाँ”
जो दरियों से नीचे उतर चुके थे वे तो लौटे ही, मंच के दाहिनी ओर तीन-चार लोग आपस में खड़े बतिया रहे थे वे भी मंच के समीप खिंचे आए और उनमें से एक सज्जन तो झुककर मुझे पहचानने की चेष्टा करने लगे। लेकिन, मैं उन्हें पहचान चुका था वे मेरे ज्येष्ठ भ्राताश्री सत्यपाल लाम्बा जी के मित्र मंच-कलाकार श्री जगदीश मोंगा थे।
मैं पूरी मस्ती में था
“हैरत से मैं तक रहा हूँ दीवाना
बहारों को जाते हुए
तुम्हीं कह दो लोग क्या कह रहे हैं
मुझको समझाते हुए”
और जब मेरा स्वर पँचम को छूता हुआ सम पर लौटा तो दरेसी मैदान के किनारे दूर-दूर टहलने वाले भी दरियों पर आकर बैठ चुके थे
“ये किसने कहा है कि मुझको है तुमसे
शिकवा या कोई गिला
न याद जाए मेरी तेरे दिल से
इतनी-सी है बस दुआ”
जब दरियाँ लगभग पूरी भर चुकी थीं तो मैं गा रहा था
“इक खिलौना ही जाना मेरा प्यार तूने
ओ संगदिल ख़ूबरू
ख़्यालों में रहके भी तुमने मेरे
ग़ैरों की की जुस्तजू”
अब मजमा लुट चुका था केवल लुटेरे का नाम घोषित होना शेष था। तभी मैंने अंतिम तीर छोड़ा
“लेकिन जो हमने तुझे कह दिया है
इक बार अपना सनम
तू तोड़ दे तोड़ दे चाहे रिश्ते
निभाते ही जाएंगे हम”
जैसे दंगल जीतने वाला पहलवान लंगोट घुमाया करता है उसी अंदाज़ में मैंने फिर से कहा
“तू तोड़ दे तोड़ दे चाहे रिश्ते
निभाते ही जाएंगे हम
निभाते ही जाएंगे हम. . .।”
मंच से नीचे उतरा तो मोंगा भ्राताश्री ने बांहों में समेटते हुए पूछा, “लाम्बा जी के भाई हो न?”
रंगमंच के श्रेष्ठ कलाकार होने के कारण भ्राताश्री सत्यपाल जी का सम्मान तब सभी कलाकार करते थे। मैं अपने को उस दिन धन्य मान रहा था कि मैंने उनके सम्मान को और बढ़ा दिया है आज।
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२