प्रत्यक्ष खड़ा वो कौन था
प्रत्यक्ष खड़ा वो कौन था
अपना था तो क्यों मौन था
घिर आए काले काले बादल
फिर फिर आए अंधियारे बादल
डरकर जो किया करूण रुदन
वो दुख से क्यों अनजान था
प्रत्यक्ष खड़ा वो कौन था
अपना था तो क्यों मौन था
हर रोज होता विचलित ये मन
हर रोज, आह्वान हर क्षण
छलनी करते शब्द अंतर्मन
क्यों निर्विकार, सुनसान था
प्रत्यक्ष खड़ा वो कौन था
अपना था तो क्यों मौन था
फिर बीते दिन और साल भी
बदला वक्त पर हालात नहीं
खुद को पहचानने की कोशिश
फिर फिर करता नाकाम था
प्रत्यक्ष खड़ा वो कौन था
अपना था तो क्यों मौन था
एक अक्स सा कोई दिखता है
आस पास ही मिलता है
रिश्ता गर अपनेपन का है
भावनाओं से क्यों अनजान था
प्रत्यक्ष खड़ा वो कौन था
अपना था तो क्यों मौन था
चित्रा बिष्ट
(मौलिक रचना)