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16 Jul 2021 · 5 min read

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा

विक्रमनगर में आज प्रातः की शुरुआत ही शंख की पवित्र ध्वनि और ढोल – नगाड़ों की गूंज से हुई। आज सम्पूर्ण नगर में हर्ष और उल्लास का माहौल था। कुंवारी कन्याएं अपने नए वस्त्र धारण कर और हाथों में शुभ कलश लिए अपने बड़ो का इंतजार कर रही थी। बड़े भी अपने नवीन से नवीन वस्त्र पहन रहे थे और पहने भी क्यूँ नहीं ऐसा मौका कई सालों में जाकर आता था, कइयों की जिंदगी में ऐसा सौभाग्य लिखा ही नहीं होता और मुश्किल से ही कोई तीन या इससे अधिक बार ऐसा देख पाता था।

आज सम्पूर्ण विक्रमनगर के चूल्हों का अवकाश था।क्योंकि सभी को आज शाही भोज का निमंत्रण आया था। राजा देव सिंह के इकलौते बेटे व राजकुमार अभयसिंह का आज राज्याभिषेक था । राजमहल की ओर से आज पूरे नगर में निमंत्रण दिया गया था। शोभा यात्रा के लिए बालिकाओं को विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया था। हाथी,घोड़े और सैनिक अपनी सम्पूर्ण वेशभूषा से सुसज्जित थे। धीरे-धीरे विक्रमनगर का किला एक मेले में तब्दील हो गया। आस-पास के प्रान्तों के राजा तथा अन्य आमंत्रित मेहमान महल के भीतर पधार रहे थे। ब्राह्मणों का दल यज्ञ एवं राज्याभिषेक के लिए पूजा की तैयारी में व्यस्त थे।
किले के भीतर स्थित एक बहुत बड़े मैदान के चारों तरफ बने सीढ़ीदार स्थानों पर नगर के आमजन अपने नए राजा के आने का इंतजार कर रहे थे । थोड़ी देर पश्चात ही मुख्य द्वार से बिगुल और ढोल-नगाड़े अपने पूर्ण आवेश से बजने लगे। सुसज्जित हाथी पर बैठे विक्रमनगर के नए राजा और उसके साथ ही उनके पिता एवं नगर पुरोहित, मंत्री एवं उसके पीछे कुंवारी कन्याएं सिर पर कलश लिए और उनके चारों ओर सैनिक जो हाथ में भाला और तलवार लिए प्रवेश करते है । उनके प्रवेश करते ही चारों ओर नए राजा अभय सिंह , और महाराजा देव सिंह और साथ ही विक्रमनगर का जय घोष होने लगा।

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एक मिट्टी की कोठी और पास में टहनियों से बना एक छप्पर जिसमें से धुआं निकल रहा था। एक नवविवाहिता कावेरी जिसनें अभी किशोरावस्था में अपना कदम ही रखा था कि उसको विवाह नाम के पवित्र बंधन में बांध दिया गया था ।गोबर के थेपलों में आग जलाने का असफल प्रयास कर रही थी। अक्सर उसकी आग बुझ ही जाती थी और फिर आस – पड़ोस से लानी पड़ती और आज तो राजा के यहाँ शाही भोज का निमंत्रण आया था और वहाँ जायँगे ,तब तक तो खीरे बुझ ही जायेंगे , ये सोचकर वो आग को ज़िंदा रखने की कोशिश कर रही थी।
उसके पति निहाल सिंह जिसकी यह तीसरी पत्नी थी, पहली पत्नी तो शादी के एक माह के भीतर ही चल बसी थी और दूसरी एक अभागी लड़की को पैदा करके। निहाल सिंह जो कि अब तीस का आंकड़ा पार कर चुके थे , राजा के यहाँ एक साधारण सैनिक थे। आज उन्हें समय पर दरबार में उपस्थित होना था ,लेकिन उसकी पत्नी अभी तक तैयार नहीं थी । निहाल सिंह की दो साल की बेटी लिछमी अपने दादा-दादी के पास बैठी थी जो दोनों चारपाई पकड़े थे। कावेरी पर ही इन सब की ज़िम्मेदारी थी। प्रातः सूर्य उदय से पूर्व से रात के गहरे होने तक उसके पास आराम करने का समय नहीं मिलता। अपने कोमल हाथों से जो अभी परिपक्वता से कोसों दूर थे, वह चक्की चलाती, पानी लेने जाती,घर की सफाई,खाना, सास-ससुर की सेवा, लिछमी का ध्यान और इसके साथ ही अपने पति की हर आज्ञा का पालन करना। जब निहाल सिंह किसी सैनिक अभियान में होते तो उसको थोड़ी राहत मिलती, लेकिन जब वो आते वो बेचारी और सहम जाती।
लिछमी को दादी के पास छोड़कर कावेरी अपने पति के साथ किले में चल दी। वहाँ पहुँचकर कावेरी अपनी पड़ोस की औरतों के दल में और निहाल सिंह अपनी सैनिक टुकड़ी में शामिल हो गया।
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अभय सिंह अपने तख्त पर बैठे ही थे कि किसी ने उस पर पीछे से हमला कर दिया। पास खड़े उसके पिता ने उसे देख लिया तो तलवार अभय सिंह के लगने से पहले ही वो बीच में आ गए। देवसिंह का रक्त अभय सिंह के ऊपर धार बनके छूट गया। दूसरा वार अभय सिंह पर करने से पहले वह संभल गए और अपनी तलवार से उसकी तलवार को रोक दिया। फिर दोनों में युद्ध छिड़ गया।
वार करने वाला और कोई नहीं महाराजा देव सिंह का दासी पुत्र व अभय सिंह का मित्र जोरावर सिंह था। वो हमेशा इसी फिराक में रहता कि कैसे विक्रमनगर का स्वामी बना जाए और आज जब अभयसिंह का राजतिलक हो रहा था उसने अपने कुछ सैनिकों के साथ अभय सिंह की हत्या का षड्यंत्र रचा, लेकिन देव सिंह के बीच में आने से अभय सिंह बच गया।
तभी चारों ओर जोरावर सिंह के सैनिक अभय सिंह के सैनिकों पर टूट पड़े और देखते ही देखते सम्पूर्ण किला रणभूमि में बदल गया। तलवारें , भाले और बाणों की वर्षा के बीच आम जनता में हाहाकार मच गया। कोई किधर भागता तो कोई किधर।
कुछ ही देर बाद अभय सिंह ने अपने पराक्रम से जोरावर सिंह का सिर धड़ से अलग कर दिया और फिर जोरावर सिंह के बचे हुए सैनिकों ने भी आत्मसमर्पण कर दिया। प्रजा में फिर अभय सिंह की जय-जय कार होने लगी और विक्रमनगर एक बड़े षड्यंत्र से बच गया। लेकिन इस संग्राम में विक्रमनगर ने महाराजा देव सिंह को खो दिया।
जहाँ कुछ देर पहले हर्ष का माहौल था , शोक में बदल गया चारों तरफ लाशों के ढेर लग गए। माताएं अपने बच्चों को ढूंढ रही थी तो बच्चें माताओं को । गुलाल और रक्त दोनों मिलकर मातृभूमि का अभिषेक कर रहे थे।
मातृ भूमि के लिए बलिदान हुए उन सैनिकों के बीच एक सैनिक पड़ा था, जिसके गले से एक भाला आर-पार निकल गया था , निहाल सिंह।

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नदी के किनारे बहुत सारी चिताए सजाई गई। सम्पूर्ण विक्रमनगर इन बहादुर सैनिकों के बलिदान से खुद को सौभाग्यशाली महसूस कर रहे थे। इन्हीं में से एक चिता थी निहाल सिंह की। चिता की लकड़ियां सजाने के बाद कुछ लोग एक नारी को पकड़ कर उस चिता की ओर ला रहे थे जो चीख रही थी और करुण रुदन से सम्पूर्ण वातावरण को भी करुण बना रही थी। लोगों ने उस नारी ,असल में नारी नहीं एक बालिका को उस चिता पर बैठा दिया और पुत्र के अभाव में किसी और ने ही उस चिता का अग्नि से मिलाप कर दिया। बातें हो रही थी ,बेचारे का कोई अपना उसे अग्नि तक दे न पाया । और उस अपने की चीखें कोई सुन नहीं पाया जो अग्नि के साथ ही भस्म हो गई। सुने भी कैसे उसकी आवाज दबाने के लिए चारों ओर ढोल-नगाड़े जो बज रहे थे । और कोई उसको जलता देख डर न जाए इसलिए चिता के चारों और धुँआ ही धुँआ कर दिया।आखिर उसने भी न चाहते हुए भी इस नरक लोक से विदा ले लिया।
वहीं मिट्टी की कोठी में बैठे निहाल सिंह के माता – पिता जो उठ भी नहीं सकते थे, प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब उनकी साँसों को विराम लगे, और उसकी दो वर्ष की बेटी लिछमी प्रतीक्षा कर रही थी अपनी माँ की तरह किसी और चिता पर बैठकर इस लोक से विदा लेने की।

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