प्रतिबिम्ब
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण,
चारों दिशाएँ अलग-अलग ।
खड़ा था मैं उस बीच भंँवर में,
फंँस गया अपने ही चक्रव्यूह में ।
उत्सुक हो जाल बिछाया,
स्वयं को उसके अंदर पाया ।
तोड़ चक्रव्यूह बाहर आऊँ कैसे,
देख स्वयं को मैं मुस्कुराया ।
मिला राहगीर बोला मुझसे,
क्या खुद को तूने नहीं पहचाना ।
आ गया इस बीच भँवर में,
मोह माया की काया पाया ।
अब तू क्यों रो रहा है,
देखा नहीं क्या उज्जवल माया ।
तोड़ दे तू भ्रम की छाया,
दूर देश की बात बताया ।
सोच रहा था मैं तो अब,
मैंने चक्रव्यूह क्यों बनाया ।
# बुद्ध प्रकाश, मौदहा (हमीरपुर)