प्रतिज्ञा हुई न भारी
शीर्षक:- प्रतिज्ञा हुई न भारी
घिर गई निराशा मन में
तन में जगी न बेकरारी
आशा की किरण दिखी नहीं
घनघोर घटा सी कारी
प्रतिष्ठायें सभी निरस्त्र हुई
प्रतिज्ञा हुई न भारी
खोया संयम विवेक पथ पर
बनता नहीं कोई अभारी
अन्याय कभी रूका नहीं
दुखी हुई संसार सारी
चेतना जगी नहीं किसी कि
प्रतिज्ञा हुई न भारी
जीवन जीने की कठिन राहों पर
खाने को ली सबसे उधारी
चुका नहीं पाया कर्ज उनका
चिंता से छाई बीमारी
दूसरों का दोष निकालते-निकालते
प्रतिज्ञा हुई न भारी
झेलता बाधा गुम सुम बन
कहलाता हैं विवशता धारी
हमेशा कटु वचन सुनते
जमाया रहा सब ने अधिकारी
ख्वाबों को झोले में समेट
प्रतिज्ञा हुई न भारी
स्वरचित
‘शेखर सागर’