“प्रकृति में मानव जीवन की समदर्शिता”
कैसा जीवन है संसारिक मानव का,
वह भटककर ताजमहल बन रहता।
कारण औचित्य जिसको कुछ जानता नहीं
भीड़ में चलकर जीवन चलाता रहता।
जिस रचनाकार ने ऐसी विभा बनायी है,
कामों के संग प्रतिभा चाह जिसमें भरी है
द्रष्टित विधिता भाव हम रहे जानते,
घर परिवार सभी विधा रहे समझते।
प्रतिभा प्रतिष्ठा संग आशा-अपेक्षा,
इसको रखकर बनाके ब्यवस्थित करते।
नौकरी,ब्यापार,ज्ञान विधिता में रखकर,
सामाजिक विधा हेतु राजनीति रहे करते
धन-दौलत-जगह-स्थान को बनाकर,
बेईमानी,अनिष्ठा करके खूब रहे बढ़ते।
सामाजिक जीवन में ढ़ंग से डूबकर,
कला भाव में रहकर परम श्रेष्ठ बन जाते।
झूठ-मक्कारी-अनिष्ठा की क्रिया करके,
अलंकारिक विधा करके सभीको दिखाते
विश्वास भरोसा हेतु लोग उक्त न करके,
इज्ज़त मर्यादा रख के मौलिकता में जीते
घर की इज्जत जो अबतक बना रखी है,
राजनैतिक विधा में वह उसको लगा देते।
संस्कृति मर्यादा नहींराजनीतिको मानकर
राजनीतिज्ञ होने बाद विशिष्ठबनकर जीते
जब नैतिकता-आत्मज्ञान नहीं होता,
तब चमत्कारिकता में कैसे बने रहते।
संसारिक भाव को अपना समझकर,
आत्मौलिक संस्कृति तब नहीं दिखती।
भोग अभिलाषा कीपरमइच्छारखने वाले
दिल में बसाकर अपना जीवन गुजार देते
नशा-दशा लेकर वह खुदको भूल जाते,
अब तक की दिक्कतकष्टमयीकरके जीते
तन मन का नशा भोगिच्छा से रहता कम
इसके हेतु अपनी संस्कृति खतम कर देते
अब तक कहां किस रुप में रहे हम,
भोगिच्छाचाहहेतुअन्यविधितासमाप्तकिये
आवश्यक आवश्यकता तन मन को होती
उसकी चाह हेतु फिरहमदुष्टबनकर करते
पूर्वआदिकर्तोंनेतनमनकाभरणपोषणकर
उक्त के अलावां अन्य कुछ भी नहीं किये
जीना रहना खाना सभीप्रभावी दिखाकर
उक्त संस्कृति में हम सभी चलते रहे।
आत्मशक्ति के भाव कभी सुने नहीं,
उक्त के अलावां अंतर्ब्रह्म भाव जाने नहीं
लोकतंत्र रही रहने जीने की अभिब्यक्ति,
सामाजिकसंस्कृतियां सभीसंगचलतीरही
लेख,सहित्योंमेंरखीरहीब्यापकसंस्कृतियां
इसमें आत्मबलियोंनेमहानक्रत्यदिखाये हैं
आंखों में आंसू दुख सुख के दिखते,
चाह अपेक्षा उक्त सेकिसीकोदिखती नहीं
आसय औ आभाकोबिलकुलसमझा नहीं
आवश्यक उपयोग समझकर करते रहे।
आकर्षण आवर्तन रहा द्रष्टि का धर्म,
आखों को नशा पिलाकर उसे पाते रहे।
तन मन की विधा यूं कभी मिलती नहीं,
योग संस्कृति करके वह परम हो जाते।
“प्रेरणा”