*प्रकृति-प्रेम*
प्रकृति-प्रेम
जीवन देना ईश्वर का काम,
लेता क्यों फिर मानव प्राण
शक्ति नहीं जीवन देने की,
फिर क्यों उसको इतना अभिमान?
निरपराध पशुओं की हत्या,
और निरंतर प्रकृति का अपमान!!
भूल गया वो नियम प्रकृति के,
जल, थल, नभ, पशु, पक्षी सारे
हैं स्रष्टि को जीवनदान!!
दया भाव से परे हो रहा,
देता पशुओं को कष्ट अपार
मन उसका इतना क्यों निर्मम,
कर रहा प्रकृति से छेड़छाड़!!
देखो नदी में हथिनी की हत्या,
जिसकी कोख में अजन्मा था एक भ्रूण
माँ-बच्चे को मृत्यु दिलाकर,
विस्फोटक-युक्त फल खिलाकर
परिचय दिया तूने होने का क्रूर!!
अचरज होता तेरे मानव होने पर,
न होता तेरे दानव होने पर!!
लगता है तू भूल रहा है,
कोरोना का विस्फोटक अवतार
तूफानों की आवाजाही,
भूकंपों का आतंक अपार!!
ये सब प्रक्रति का मानव पर है
निरंतर ही मूक प्रहार!!
अभी समय है परिवर्तन कर,
ईश्वर का तू अनुसरण कर
जीवन-दायिनी आभा जो है
मत असुर बन तू भक्षण कर,
चारों ओर वृक्षारोपण कर!!
पशुओं से कर प्रेम अपार,
भाव नहीं कर सकते हैं जो व्यक्त
मत कर उनपर अत्याचार!!
मत कर उनपर अत्याचार!!
प्रेम एक-मात्र भाव है ऐसा,
करे प्रकट जो शिष्टाचार
प्रेम एक-मात्र भाव है ऐसा,
करे प्रकट जो शिष्टाचार!!
डॉ प्रिया।
अयोध्या।