प्रकृति प्रहार
**प्रकृति प्रहार**
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प्रकृति-प्रहार से
सीख जाता है ये
अंहकारी मानव
जिन्दगी का पाठ
वर्ना रहता है सदा
जलेबी की भांति
एकदम टेढा-मेढ़ा
मोह- माया-लोभ
क्रोध और द्वेष की
चासनी में लिप्त
टपकता रहता है
अहम अहंकार का
चिकना गाढ़ा रस
हो जाता धूमिल
जब मिल जाता है
भू पर धूल कण में
खो जाता आस्तित्व
मिट जाता है अहम
समझता नहीं है वो
मानव को मानव
बन जाता है दानव
कर्म – कुकृत्यों से
भूल जाता है वह
खूद की मूल-जड़ें
धंस जाता वो खूब
बुराई की काई में
गहरी दलदल में
बन जाता है वो
पूर्णता निष्ठुर जटिल
नही निकल पाता
फंसा रहता है वो
वहीं यथास्थिति में
जब तक कि नहीं
लगती उसे ठोकर
नासूर जिंदगी की
और वो नहीं सीख
पाता है जीवन पाठ
जब जब भी होता है
ऐसा हाल सृष्टि पर
मानवीय मूल्यों का
संस्कृति संस्कारों का
मानवाधिकारों का
तब तब जब जब
पड़े दृष्टि कुदरत की
विस्थापित करने
प्राकृतिक संतुलन
करता है तब ईश्वर
प्राकृतिक प्रकोप और
सुखविंद्र वार-प्रहार
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)