प्रकृति के अपराधी
प्रकृति के अपराधी
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तप रही है धरती, ताप रहा आसमान
पेड़ ही नहीं बचे, जाएं कहा इंसान ।।1।।
चला लेते कुल्हाड़ी, अपने ही पैरों पे
लकड़ी ही काम आती, पैरों से चलने पे।।2।।
दिल दिया खोल के, भगवान ने इंसा को
भगवान मानने से ,कतराते वही इंसा जो।।3।।
लगान चाहिए था बिठाना, हर सांस पर
हौले हौले से लेता इंसा, लगान सोच कर।।4।।
रास्ते के कुत्तों की, किसको पड़ी है
वफादारी की मुहर, उनसे खड़ी है।।5।।
दाना पानी खोजने, पशु पक्षी निकलते
पिज्जा बर्गर के पैकेट,उन्हें पड़े मिलते।।6।।
आवास इनका प्राकृतिक ,चले उध्वस्त करते
मानव बस्ती में आते,सरकार से सवाल करते।।7।।
यहीं सोच रखने से, विनाश तो अटल है
प्रण करो खुद से ,प्रकृति का दिल विशाल है।।8।।
कहते रहे साधु संत, सदियों से इंसा को
रहे प्रकृति आसपास, दुनिया बचाने को।।9।।
मंदार गांगल “मानस”