*”प्रकृति की व्यथा”*
“प्रकृति की व्यथा”
प्रकृति की व्यथा सुनो ….! !
जो कभी किसी से कुछ न पाती।
वृक्ष फल फूल देता लेकिन कुछ ना कह पाती।
उठ जाग रे मानव प्रकृति अब उजड़ने को बिखर कर मिटने को तैयार है।
अब तो सुधर जाओ पेड़ पौधे मत उजाड़ो ,
पेड़ पौधों से ही जीवन शुद्ध ऑक्सीजन मिले यही आधार है।
प्रदूषित वायु प्रदूषण विष पीकर भी ,
फल फूल औषधि देकर अमृत तुल्य जीवन बनाता ।
पेड़ो की शाखाओं पर पक्षियों का
रैन बसेरा रहता ।
लकड़ी काटकर वन जंगल उजाड़ वीरान बना दिया।
सूखी बंजर जमीन अन्न उपजे अब कैसे ,
बादल मंडरा कर उड़ जाते बारिश कैसे होवे।
पर्वत शिखर अब वैसे ही रहने दो भूलकर भी इसको छेड़ो ।
नदियां भी अविरल धारा बहने दो उसे भी मैला मत करो।
पावन धरा अब कांप उठी है कुपित हुआ संसार है ।
धूप वायु अग्नि जल तत्व से धरती की सौगात है।
अब तो जागो हे मानव प्रकृति की व्यथा सुन लो ,
इन्हे सम्हाल जतन कर सुरक्षित जीवन से प्रेम करें।
शशिकला व्यास शिल्पी✍️
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