प्रकृति की मनोरम है छटा निराली
प्रकृति की मनोरम है छटा निराली
**************************
प्रकृति की मनोरम है छटा निराली
महकती फूलों की है क्यारी क्यारी
सूर्य,चाँद,तारे,प्रकृति के रूप प्यारे
भू,नभ,वन,नदी, पर्वत,पठार न्यारे
प्रकृति के रंग होते है बहुत निराले
नभ नीला तो कभी बादल हैं छाये
कभी जेठ माह में गर्म हवा चलाए
कभी पौष की शीत समीर चलाए
बहती झील,झरने,नदियां मन भाए
जीव-जंतु,जन,वन को नीर पिलाए
हरी हरी फसले खुशी खुशी पकाए
अन्न धन धान्य जन जन है पहुंचाए
कभी सुखे तो कभी बादल बरसाए
पकी पकाई फसलें नष्ट कर जाए
गर मानव प्रकृति से छेड़खानी करे
पलभर में प्रेमत्याग के विध्वंस करें
कभी भूकंप तो कभी सुनामी लाए
रौद्र रूप दिखाके नाराजगी दिखाए
वन उपवन वनस्पति समृद्ध बनाए
वन संपदा को भी खुशहाल बनाए
सुमन सुगंध तितलियां खींच लाएं
भंवरों को फूलों का रसपान कराए
चाँद शांत चाँदनी से निशा चमकाए
सूर्य किरणें दिन में तारे भी दिखाएं
हर पल प्रकृति रंग बदल बहलाए
शीतल हवा के झौंकों से हैं सुलाएं
प्रकृति आभा मन मोहित कर जाए
कोयल भी मधुरिम मीठा राग गाए
गर्मी,सर्दी ,वर्षा,बन्सत,पतझड़ रंग
रंग बिरंगे रंगों से धरा होती सबरंग
सावन में खूब खेतो में वर्षा बरसाए
प्रेमियों के दिल में प्रेम अग्न जलाए
सुखविंद्र कवि कविताई में यह प्रण
प्रकृति अनदेखी नहीं प्रेम करें जन
***************************
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)