प्रकृति का क्रोध
प्रकृति क्रोध में भर कर आई,
और लगी हम पर चिल्लाने।
बोली, ए इंसान!
तुम कैसे एहसानफरोश हो।
जिसने दिया है तुमको
जीवन का दान।
तुम उसी का प्राण धीरे-धीरे
क्यो ले रहे हो।
मैंने बड़ी मुश्किल से इन
पाँचो मे संतुलन बनाया था।
धरती, गगन, हवा ,अग्नि और जल को ,
तुमसे मिलवाया था।
तेरे प्राण रक्षक बनाकर
इन सब को यहाँ पर लाया था।
पर तुम क्यों इनको
बार-बार सता रहे हो।
तुम बार-बार क्यों इनके
अस्तित्व पर चोट कर रहे हो।
तुम हवा में क्यों इतना
जहर घोल रहे हो ।
क्यो पानी को इतना तुम
मैला कर रहे हो।
क्यों धरती से तुम पेड़ को
काट रहे हो ।
और उसके भार को तुम
इतना बढ़ा रहे हो।
क्यों आसमान पर बार-बार
तुम चोट पहुँचा रहे हो।
तुम को पता नहीं है कि
जिस दिन इसके सहने की
शक्ति खत्म हो जाएगी ,
उस दिन इस संसार मे
प्रलय मच जाएगा।
हवा तुफानों में बदल जाएगी,
तेरी संसार को उजाड़ ले जाएगी।
धरती भी कहाँ पीछे रह जाएगी ,
वह भी अपना संतुलन बनाने के लिए
खुद को हिलाएगी ,डुलाएगी
फिर तुम्हारी इस दुनिया वह गिराएगी।
जल भी अपना जब विस्तार रूप ले आएगी।
पूरे संसार मे वह बाढ़ बन छाएगी ।
फिर तुम्हारे संसार को बहा ले जाएगी
अग्नि, जब अपना क्रोध तुमको दिखलाएगा,
चारो तरफ आग का हाहाकार मच जाएगा
फिर बोलो, तुम्हारे संसार को कौन जलने से बचाएगा।
आसमान भी जब ऊपर से
तुमको चोट पहुंचाएगा।
अपने तारों को तोड़- तोड़
धरती पर फैलाएगा।
सोचो उस समय तुम्हारा
क्या हश्र हो जाएगा।
– अनामिका