प्रकृति और मानव
नित शीतल चाँदनी धरा पर
अब सर्वत्र चमक रही है।
फिर भी राहो में क्यों
मानो अग्नि दहक रही है।
बागों में फूल कलियां वे
और चिड़िया चहक रही है।
फिर भी मन मंदिर में
क्यों ईर्ष्या झलक रही है।
स्वच्छ गगन में उड़ते पंछी की
लडियां कटु मौसम सह रही है।
फिर भी विकसित समाज की
टूटी लङिया विलग बह रही है।
नव धरा श्रृंगार करके भी
बस अपमान सह रही है।
वक्त रहते तू संभल जा
अभी चुपचाप कह रही है।
हिमालय की ऊंचाई मुकुट सा
प्रकृति का साज कर रही है।
ज्यों रवि के तेज से चांदनी।
तिमिर पर राज कर रही है।
प्रशांत शर्मा सरल