प्रकृति और तुम
बिलकुल सूर्योदय के समय
नदी के घुमाव के साथ-साथ
सरसों के फूलों भरे खेत,
आँचल लहरा दिया हो तुमने जैसे।
सूरज की पहली किरणों से नहाकर
नदी चमक उठी है कैसी
बचपन युक्त तुम्हारी,
निर्दोष हँसी हो जैसे।
हवाओं के ढोल बजाते ही
नाच पड़े वृक्षों के पत्ते यों
तुम्हारी पायल से बंधे चाँदी के
छोटे-छोटे घुँघरू हो जैसे।
पहाड़ से गिरकर झरना एक
हो जाता है विलीन झील में
और खो देता है अपना अस्तित्व,
तुम्हारे समर्पण का प्रतीक हो जैसे।
जितनी अधिक होती स्याह रात
उतना ही भरता तारों से आकाश
दे जाता विपरीत समय में भी,
तुम्हारी आँखों में भरे सपनों का आभास।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”