“प्यास धरती की”
क्रूर हो रहे मेह के आवरण क्यों?
सुलग रही है आज धरा बेहाल हो,
हो गई विमुख संवेदनाएं प्रकृति की,
तैर रहे वायुमंडल में कण धूल की।
प्यासा है सावन आज बिन फुहार के,
फट गया है उदर वसुधा का आज क्यों ?
है ये परिवर्तन तो करे क्या भला ?
सब खो दिए सौंदर्य वृक्षों ने डाल की।
कैसे जिएं लोग भला निर्वात तपन में!
हरियाली नहीं दिखती कहीं सिवान में,
हो गया दुर्लभ, सावन का श्रृंगार आज,
क्या सुनाएं अब व्यथा इस हाल की।।