प्यार में पागल हुआ
स्वप्न में दर्शन दिए, मन को लुभाया
तब तुम्हारे प्यार में पागल हुआ मन
भावना के सिन्धु में जब ज्वार आया
संतरण करती रही दिन-रात काया
तोड़कर तटबंध जब नव उर्मि भागी
तब तुम्हारे प्यार में घायल हुआ मन
घाव का रिसना परीक्षा प्रेम की है
फ़िक्र रहती नहीं खुद की क्षेम की है
वाष्पमोचन हो रहा जो अश्रुजल का
संघनित होकर वही बादल हुआ मन
कभी एकाकी नहीं मैं, याद तेरी
साथ रहती है सदा बनकर चितेरी
कर्णकुहरों में बसी है ध्वनि अनूठी
ज्यों थिरकते पाॅंव की छागल हुआ मन
महेश चन्द्र त्रिपाठी