प्यार की कलियुगी परिभाषा
प्यार कभी भी सिर्फ प्यार नहीं होता है
थोड़ा प्यार और ज्यादा स्वार्थ होता है ,
सुबह गरम चाय की प्याली मिल जाये
बिस्तर पर ही खाने की थाली मिल जाये ,
फिर तो शब्दों की गठरियाँ खोली जायेगीं
उनमें से चुन चुन कर तारीफें बोली जायेगीं ,
ढ़ेरों तारीफों के बाद अगर गलती हो जाये
ज़लील करने का एक मौका ना छोड़ा जाये ,
लोहे वाले रोबोट के सीने में तो दिल नहीं होता
इंसान वाले रोबोट में तो बाखूबी मौजूद होता ,
अब तो प्यार भी रोबोट के चिप में डाला जाता है
बटन दबाकर उसको प्यार करने को कहा जाता है ,
लोहे वाले की चिंता होती है खराब ना हो जाये
इंसान वाले का क्या है वो मुआ भाड़ में जाये ,
बिना हीलिंग ऑयलिगं के चलना भी कमाल है
ज़रा सा तबियत नासाज़ हो जाये तो बवाल है ,
ज़रूरतों की आपूर्ति करने वाला ही लाचार है
उसके बारे में सोचना तो एकदम बेकार है ,
इस थोड़े से प्यार में भी वफादारी होती है
ज्यादा स्वार्थ में तो बस दुनियादारी होती है ,
ये प्यार और स्वार्थ का जो जटिल व्यूह है
महाभारत से भी ज्यादा खतरनाक चक्रव्यूह है ,
इस चक्रव्यूह में किसी को मारा नहीं जाता
बस थोड़े से प्यार में ज्यादा स्वार्थ साधा जाता ,
हर रिश्ते में स्वार्थ ही अब तो सर्वोपरि है
प्यार कहाँ बचा है वो तो सिर्फ ऊपरी है ,
कहते हैं अपनों में स्वाभाविक प्यार होता है
वो त्रेता था वर्तमान को कलियुग कहा जाता है ,
हम इंसानों से अच्छे तो ये लोहे वाले रोबोट हैं
अपने प्रोग्राम के ज़रिए प्यार को करते सपोर्ट हैं ,
इस युग में प्यार की परिभाषा सच में बदल गई है
इतना स्वार्थ देख कर परिभाषा भी दहल गई है।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा )