*”प्यार का अंत और शुरुआत”*
#प्यार का अन्त और शुरुआत#
#दिल मेरा टुकड़ा-टुकड़ा हो गया#
#नौकरी मिले 1 वर्ष बीत चुका था, घर-परिवार, मौहल्ले में शादी को लेकर बातें होना शुरू हो चुका था । घर में माँ-बाप बुज़ुर्ग थे, उम्र भी 30 की दहलीज़ पर आ पहुँची थी, सो शादी की ज़रूरत भी रमन को होने लगी थी । सभी नाते-रिश्तेदार शादी के रिश्तों के साथ आने लगे थे ..
जिसका कभी भरोसा भी न था कि वह हमारे घर आएगा वो भी आजकाल अपने बैग में एक लिफ़ाफ़े के अंदर फ़ोटो ओर बॉयोडाटा के साथ आ रहे थे ।
चाहे दूर का मामा हो या पड़ौस के काका , सबको सिर्फ़ एक ही चिन्ता सता रही थी कि कैसे रमन की शादी हो ।
रविवार की छुट्टी का दिन था , सो रमन घर घूमने आया हुआ था…
गोपाल काका ..-भगत जी हो क्या घर पर..(मेरे घर के दरवाजे को खटखटाते हुए तेज आवाज दी)
नमस्ते चाचा जी …आइये …कोई काम था क्या (मैंने आवाज देते हुए कहा)
गोपाल काका – कुछ खास काम नहीं था बस ऐसे ही मिलने चला आया..
मैंने गोपाल चाचा को चारपाई की तरफ इशारा करते हुए बैठने के लिये बोला और पिताजी को आवाज़ दी ।
घऱ की चहारदीवारी के अंदर से पिताजी ने अपने वहाँ उपस्थित होने की आवाज़ दी ।
अब पिताजी और गोपाल चाचा दोनों बातों में मशगूल हो गए, एक दूसरे को बीड़ी जलाने के लिये कहने लगे । आख़िर गोपाल चाचा ने अपनी जेब से बीड़ी का बंडल निकाला फिर दो बीड़ी जलाई । दोनों लोग साथ ही साथ बातों -बातों में गॉंव मोहल्ले की बात करते हुए , अंततः असली मुद्दे पर बात करने लगे ।
गोपाल चाचा – हमारे रिश्तेदार हैं उनकी एक बिटिया है शादी के लिये, कह रहे थे अच्छा ख़र्च कर देंगे ।
एक चार पहिये की मारुति गाड़ी की भी बोल रहे थे । आप कहो तो मैं उन्हें बुला लेता हूँ , घर पर बैठे हैं ।
पिताजी – देखो ….हमने तो शादी की बात लड़के पर ही छोड़ दी है , बस लड़की ऐसी हो कि घर परिवार को सही ढंग से समझ सके, आपको तो पता है आजकल की लड़कियाँ बहुत ही तेज़-तर्रार होती हैं ।
बाकी तो हमें कुछ लेना-देना नहीं है, और न ही किसी के देने से हम मालदार हो जायेंगे, लड़की -लड़का आपस में एक -दूसरे को पसंद कर लेंगे तो हम भी शादी के लिये तैयार हो जायेंगे
पिताजी जी ने सहमति जताते हुए उन्हें घर बुलाने के लिये गोपाल चाचा को कह दिया ।
(मैं ये सारी बातें थोड़े दूरी पर टहलता हुआ सुन रहा था )
गोपाल चाचा को जैसे ही पिताजी की सहमति मिली वो झट से उठकर अपने घर गए और तुरन्त वापसी करते हुए, उन महानुभाव के साथ फ़िर से तशरीफ़ लाये ।
फ़िर सभी की बातों का सिलसिला क़रीब 1 घंटे तक बदस्तूर जारी रहा , साथ में चाय-नाश्ता चलता रहा ।
आख़िर में सहमति ये बनी कि लडक़े पक्ष वाले अगले रविवार को लड़की को देखने आएँगे ।
इस तरह शायद ही कोई रविवार बाकी रहता होगा जब कोई व्यक्ति रिश्ता लेकर घर न आता हो
रविवार का दिन लड़की देखने मैं या फ़िर लडक़ी वालों की आवभगत में व्यस्त रहता और बाकी के दिन आफ़िस की ड्यूटी पर बीत जाता । यही चलता रहा छः महीने तक लगातार …।
मन में थोड़ी सी कुंठा भी थी कि आख़िर मुझमें ऐसी क्या कमी थी कि जिसको मैने चाहा ,उसने मुझे ठुकरा दिया…ठुकराना भी मुझे अच्छा लगता बशर्ते उसने पहले बता दिया होता कि जो हमारे बीच में बातें होती हैं ये सिर्फ़ बातों तक ही सीमित हैं , इन बातों का कोई अन्यथा में मतलब न निकाला जाय ।
उसने कई बार मुझसे अपने प्यार का इज़हार किया था…, कई बार बो मुझसे घर से भागने के लिये बोल चुकी थी,..
हर बार में उसे समझाता रहा कि समय आने दो , में हमेशा तुम्हारा साथ दूँगा, तुम्हारे साथ रहूँगा…
लेक़िन अचानक एक दिन उसका फ़ोन आता है औऱ बोलती है कि तूम मेरे बारे में सोचना बंद कर दो।
तृष्णा- मेरे घर वाले मेरा रिश्ता तुम्हारे साथ नहीं चाहते, और अगर तुम बात भी करोगे तो वो तुमसे साफ़ मना कर देंगे ।
ख़ासतौर पर मेरी दोनों बड़ी बहिनें नहीं चाहती कि तुम्हारे साथ मेरा रिश्ता हो ।
रमन- आख़िर बात क्या हो गयी अचानक …..(साँस को खींचते हुए ) …मुझे बताओ तो सही…ऐसे तो नहीं ..कुछ तो बात हुई होगी घर पर ..क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं ….
तृष्णा – मैं जो कह रही हूँ वही ठीक है तुम भूल जाओ मुझे …ठीक रहेगा कि अब हम फ़ोन पर भी बातें न करें…
ओके बाय..बाय..
रमन – बाय.. ( इतने में फ़ोन कट जाता है …)
उस दिन मैं ये सोचता रहा कि आख़िर ऐसा क्या हुआ होगा जिससे कि अचानक उसे मुझको मना करना पड़ा ।
जो लड़की मरती थी मुझपर ….
जिसको मेरे साथ रहने की ज़िद थी…..
जो मेरे साथ घऱ से फ़रार होने को तैयार थी…
जिसने मुझे ख़ुद स्वीकार किया….
जिसने मेरे दिल को प्यार सिखाया…
जिसने मुझे तहज़ीब सिखाई…बोलने का लहज़ा समझाया….
आज अचानक उसके व्यवहार में इतना बदलाव कैसे था..
कुछ हासिल नहीं हुआ अंत में मुझे सिर्फ़ छलावे के
दिल-दिमाग़ टूट चुका था..अब न ही मैं रविवार को घर आ रहा था और न ही मेरे चेहरे पर रौनक़ थी ।
मेरे सपनों का महल टूट कर बिखर चुका था….
दिन-रात सदियों से गुज़र रहे थे…
मुझे न खाने का ध्यान था और न ही गले से पानी उतर रहा था…
मुक़्क़द्दर ने मुझे ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा किया ।
ना जमीं है पैरों तले, न मेरे सिर पर आसमाँ ।।
समय व्यतीत हो रहा था , गुस्से से प्यार का भूत सिर से उतर रहा था ।
“वो पल कुछ यूँ ही गुज़र गए, चला जैसे समय-समय से तेज”
वो दिल के अरमां बिखर गए, चला हो जैसे अंधड़ तेज़ हवा ।
मैं उसे धीमे-धीमे भूल रहा था,
लेक़िन वो कहते हैं न कि दिल की लगी बुरी होती है…
आज मन बहुत दुःखी था …
सोचा कि उससे बात कर लूँ….
लेक़िन बातों से भी मुझे कौन सा सुकून मिलने वाला था..
उसने मुझे और अधिक दर्द दिया यह कहकर कि मैं किसी और को चाहती हूँ……
मैं उससे शादी करना चाहती हूं…….
#अब बस पिताजी को बोलना बाकी है घर में सबको पहले ही बता चुकी हूँ……
सबने अपनी सहमति दे दी है ।
और हाँ में उम्मीद करती हूँ कि उस समय तुम मेरे साये से भी दूर रहना ……शायद तुम मेरी बात मानोगे भी…
इतना कहते ही तृष्णा ने फ़ोन काट दिया..
ये क्या हो रहा था मेरे साथ ……
क्यों लगातार मुझे हर लम्हा रोने को मजबूर कर रहा था…..
क्या मैं ही ग़लत था,
या वक़्त मेरे ख़िलाफ़ था, मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था..
#उस दिन मैंने एक प्रतिज्ञा ली …
कि ज़िन्दगी को अपने ढंग से जियो न कि दूसरों के कहने पर…..
अगर कोई आपसे सच्चा प्यार करता है या आप किसी से सच्चा प्यार करते हो तो आप जैसे हो/वह जैसा है …आप/वह एक-दूसरे के अनुकूल बनो न कि प्रतिकूल….
कोई आपको बदलना चाहता है तो सामने वाला व्यक्ति यह क्यूँ नहीं कहता कि मैं आपकी तरह रहना, खाना-पीना , बोलना, कपड़ों का पहनावा, सब कुछ आप के मुताबिक़ ही रहूँगी/रहूँगा ।
बदलाव आ रहा था मेरे व्यवहार में जोकि परिवार वालों को मेरी बातों से महसूस हो जाता था । मैं अपनी पुरानी जिंदगी में वापस लौट रहा था, सब कुछ पहले जैसा चाहता था ।
अब वो समय भी आ गया जब मैं परिवार वालों के अनुसार शादी रचा लूँ, लेक़िन अब बात पसंद पर ठहर रही थी । मेरे परिवार के सभी लोगों ने कह दिया कि लड़की की पसंद तुम्हारी चलेगी बाकी सब हम देख लेंगे ।
रिश्ते आने बन्द हो गए थे क्योंकि सभी लोग थक चुके थे मुझसे बात करते-करते… …
सबने कह दिया कि अब हमारे बस की बात नहीं…
अब अपने अस्तित्व को बचाने का सवाल था सो स्वयं ही रिश्ते ढूढ़ने के रास्ते देखने शुरू कर दिए । नवयुग के नए माध्यमों को इस्तेमाल करने का मन बनाया और कई वैवाहिक वेबसाइटों पर अपना रजिस्ट्रेशन कराया ।
#”एक नई शुरुआत करनी है मन में ये मैंने ठाना है”
“बिन तेरे भी है मेरी ज़िंदगी,अब तुझको ये दिखाना है”
#अब वो दिन फ़िर वापस आये, परिवार में फ़िर चेहरे मुस्काये।
अंधकार समय का बीत गया, मन-मोर बना ले अँगड़ाई ।।
#मेरे जीवन के वो दुःखद पल बीत चुके थे, समय बदल रहा था,अब समय मेरा था…मैंने मन ही मन कुछ सोच रखा था ।
आख़िर वो समय आ ही गया जब मेरा रिश्ता होने वाला था । लड़की पक्ष को में पसन्द आया, अगले दिन हम चल दिये लड़की को देखने …
#अब मैं ज़्यादा सोच नहीं रहा था , पहले की तरह । लड़की को देखने के बाद मैंने रिश्ते की हामी भर दी।
इस तरह मैंने अपने जीवन साथी को चुना , जिसे मैं आज उससे कहीं अधिक प्यार करता हूँ…
उसकी परवाह करता हूँ…
उसके बारे में सोचता हूँ……
जितना में उसके प्रति समर्पित हूँ उससे कहीं ज्यादा वो मेरे प्रति समर्पित है ।
आज मेरी उस पसंद को पाँच वर्ष पूर्ण हो चुके हैं…प्यार भी दिनों-रात बढ़ रहा है…मुझे फ़िक्र रहती है …मैं प्यार करता हूँ…अपनी पत्नी से…LOVE YOU..
#आज उसे जलन होती है , ऐसा क्यूँ…
पसन्द उसकी…
छोड़ा उसने….
ठुकराया उसने…
दिल तोड़ा उसने…
जब सब कुछ उसने ही किया तो अब इल्ज़ाम मुझपर क्यूँ लग रहे हैं…
क्या मुझे इतना भी हक़ नहीं कि मैं अपने अस्तित्व को बचा सकूँ ……
में स्वयं को जीवित रख सकूँ । मैं ख़ुश रह सकूँ …।
अब कुछ नहीं हो सकता तृष्णा में अपनी जिंदगी जी रहा हूँ, तुम अपनी पसंद के साथ जियों,…
मुझे छोड़ दो मेरे हाल पर..
#इस तरह मेरे प्यार का अंत और शुरुआत हुआ…
आर एस बौद्ध “आघात”