‘प्यारी ओस-बिंदु’
गौरैया-कोकिल-मैना जब,
लगे जगाने सब मिल करके,
मैं भी देख परिश्रम उनका,
उठ बैठा फिर तड़के-तड़के
वह उन्मुक्त बालपन अपना,
बीता स्वर्ग सदृश गांव में !
खग-मृग, सरिता, मंद-पवन सब,
मुझसे पहले जाग गए हैं,
सुखद विहंगम भोर दृश्य था,
सुर-दुर्लभ प्रकृति की छाँव में !!
उसी गांव के एक बाग में,
उसी बाग के एक वृक्ष पर,
उसी वृक्ष के एक वृंत में,
उसी वृंत के एक पात पर,
अंतर्तम से तुझे निहारूं,
कैसी मनमोहक सुन्दर छवि !
बैठी एक सुनहरी काया,
आस लगाये, पलक टिकाये
अरुणोदय की करे प्रतीक्षा,
नभमंडल में कब प्रकटे रवि !!
सृष्टि-नियंता ही जाने यह,
क्या प्रारब्ध लिये तुम आयी,
क्या विचरोगी इस उपवन में,
कूद पड़ोगी या तड़ाग में,
या विलीन होगी इस तरु में,
या नभ लेगा उठा गोद में !
हो अधीर-उत्कंठित चाहूँ,
प्रकृति-सुता तुम करो ठिठोली,
अगर अनंदित हो खेलो तुम,
इस उपवन के अमित मोद में !!
उस पल्लव की सुखद गोद से,
जब तुम निज यौवन पाओगी,
ठुमक-ठुमक शिशुलीला करते,
बन पीयूष जग में छाओगी,
सच कहता हूँ हृदय-मोहिनी,
तब ही नया सवेरा होगा !
विस्मयकर जगती देखेगी,
मैं देखूँगा, तू देखेगी,
गीत नवल तब मेरे होंगे,
नूतन स्वर भी मेरा होगा !!
– नवीन जोशी ‘नवल’
बुराड़ी, दिल्ली।