‘प्यारी ऋतुएँ’
प्रकृति के देखो खेल अजब हैं,
इसके तो हर दृश्य ग़जब हैं।
प्रत्येक ऋतु होती अलबेली,
अपने में ही होती है पहेली।
आए ग्रीष्म तो छाया भाए,
हमने छायादार वृक्ष लगाए।
बरखा आई हरियाली लाई,
भांति-भांति की वनस्पति उग आई।
शरद की महिमा है अति निराली,
लाई दिवाली पकवानों की थाली।
हेमंत ओस बिंदु बिछाती चमकीले,
घास पात बनते छैल-छबीले।
शिशिर में मिलजुलकर तापें आग,
रेवड़ी गुड़ मूंगफली भुने अनाज।
बसंत राज के अंदाज अनोखे,
बाग-बगीचों के सजे झरोखे।
हर ऋतु का पाते हम अहसास,
जीवन में भर जाए है उल्लास।
हर ऋतु के रंग में रम जाएं,
भिन्न-भिन्न आनंद फिर पाएं।
स्वरचित एवं मौलिक
©® Gn