प्यारा सुंदर वह जमाना
कवि हूँ मैं तो गाँव का
शहर न मुझको रास आता
गाँव में हूँ पला बड़ा
गाँव ही मुझको है भाता।
पर गाँव भी अब वह कहाँ रहा
जैसा पहले होता था
आमों के वह बाग और
बैलगाड़ी की सवारी
रज भरी उस बाट पर
मवेशियों की वह रैली
पीछे ग्वालों की टिटकारी
वह भी थी बड़ी निराली।
वह बैलों से खेत जोतना
हल के ऊपर चढ़ बैठना
मिट्टी के कच्चे खुले आंगन में
रोज शाम को धुम मचाना
गाँव गली की लुकाछिपी
गल खोद कर खेलते अंटी
पत्थर पत्थर पर थे रखते
लेकर हाथ में छोटी संटी।
घोंसले में चिड़िया के अण्डे
कहाँ गये वह गिल्ली डण्डें
गर्मी में वह नदी में नहाना
और बाग में आम खाना
इतिहास बन कर रह गया है
सुंदर प्यारा वह जमाना।
– विष्णु प्रसाद ‘पाँचोटिया’