पैसे की झंकार
पैसे की झंकार ।
श्रवणीय नहीं बिन विकार।।
चुका है बन जो आज जीवनधारा ।
है देता सर्वत्र यह साथ बन सहारा ।।
इसी के झंकार से सर्वत्र।
होते पूरित सकल मनोरथ।।
होई इही कारण निर्मोही मोही।
होई सब जन परम सनेही ।
कहे कवि भारत भूषण अब क्या हो
महिमामण्डन।
वोट दिलाए मान बढ़ाए।
जो जन इसका ध्यान लगाए।।
है बन जाता टूटे रिश्तों की डोर ।
कारण जिसके क्षुधातुर है कहलाता चोर ।।
है होता प्रारम्भ रक्त पिपासा की चाह ।
है हो जाता भ्रष्ट आदमी भटककर राह।।
कारण अभाव में चहुँओर दारिद्रय की आह।।