पैसा :- एक भूख
आजकल देखी जाती हैं
सिनेमा, दीवारों तथा
अखबारों में छपी और
दिखाई गई तस्वीरें…
जो सच है पटल पर
पर्दे के पीछे
उतारती है औरत अपने कपड़े,
खुश करने को सामने वाला
उड़ाता है जो गिट्टियां पैसों की
जिन्हें झुक कर वो चुनती है।
कुछ केवल उतारती हैं कपड़े,
कुछ कूचखाने में गिरती है..
बुझाती है प्यास उन लोगों की
जिनके सिर पर होता है ताज,
अमीरी, इज्जतदारी का खोल चढ़ा।
कुछ आती हैं स्वयं यहां
कुछ लायी जाती है अपरहण कर
नाम मिलता है वेश्या,
खोई सी आब-ऐ-ख्वाब बुनती है।
है घोर कृत्य लेकिन अब,
चंद पैसों के लिए बिक जाती है।
बनाती है वीडियो घर,
दुनियाभर को दिखाती है।
जिसमें हाथ जाता है कभी…
लबों पर, बालों में,
वक्षस्थल पर, गालों में,
नैनों से उकसाती है।
रिश्तों को डूबाती है और
पाते ही इशारा….
अर्धनग्न हो जाती है।
नशा चढ़ता है पैसों का,मगर
यहां अपनों की भी नहीं सुनती है।
आदमी उठाता है फायदा,
इसी मौके का यहां पर…
ले जाता है पर्दे पर,
मंच पर, कैमरे में कैद कर
मॉडल बनाता है।
फिर लूटते हैं आबरू!
धमकियां, ब्लैकमेल,
मंच से बाहर किया जाता है।
फिर कोई नहीं सुनता,
ठोकरें थाने में, कोर्ट में खाकर,
न्याय ना आता है।
हो रहा है आजकल ऐसा
पथ यह स्वयं चुनती है।
पैसों की भूख है…..
खुद ही जाल बुनती है।।
रोहताश वर्मा ” मुसाफिर “