पैबंद
पैबंद – पंकज त्रिवेदी
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बचपन में जब
नहलाकर माँ मुझे तैयार करती
और फटी सी हाफ पेंट पैबंद लगाकर
माँ मुझे स्कूल भेजना चाहती थी तब
मैं नाराज़ होकर हाफ पेंट पहनने का
इनकार कर देता था…
पिताजी उस वक्त मुझे समझाकर कहते
मैं जब शहर में जाऊँगा तो तेरे लिए
नए कपड़े जरूर ले आऊँगा और फिर
मैं उनकी बात पर भरोसा रखकर
पेबंद लगाई हुई हाफ पेंट पहनाकर
स्कूल चला जाता था….
दो दिन से स्कूटी बंद हो गई थी
बेटी ने अपनी माँ से कहा था कि
मैं पैदल स्कूल कैसे जाऊँ ?
पापा को वक्त ही नहीं मिलता
उसकी माँ ने मुझे कहा भी, कुछ करो
आज स्कूटी की चाबी बेटी के हाथों में
थमाते हुए मैंने उसके चेहरे को देखा
वो बहुत खुश थी और स्कूल के लिए
उत्साह उमड़ रहा था….
कितना फर्क हो गया है दो पीढीयों के बीच
मगर यही सत्य है उसे स्वीकार करना होगा
यही सोचता हूँ मैं आँगन में रहे झूले पे
बैठा हुआ खुद में खुद की तलाश करता हुआ…
और… लगता है, दो पीढ़ियों के बीच हम भी
लगा रहे हैं पैबंद….
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