पेड़ चुपचाप आँसू बहाते रहे
काट जंगल नगर हम बसाते रहे
पेड़ चुपचाप आँसू बहाते रहे
पेट जिसने भरा और दी छाँव भी
आरियाँ उस बदन पर चलाते रहे
झूलते हम रहे डाल जिसकी पकड़
काट कर हम उसी को जलाते रहे
इन परिंदों के घर तोड़कर हम यहाँ
आशियाने को अपने सजाते रहे
मुड़ के उनकी तरफ देखते भी नहीं
कहने को पेड़ कितने लगाते रहे
स्वार्थ में काट कर पेड़ हम ‘अर्चना’
अपनी धरती को बंजर बनाते रहे
डॉ अर्चना गुप्ता