पेड़ की आवाज
आज एक ज़िन्दगी गुहार लगा रही थी ,
क्या कुसूर था मेरा जो ये दुनिया मुझ पे आरी चला रही थी,
आवाज नहीं उठाई थी इसलिए कमजोर समझ रही थे,
खड़ा था एक जहग पर सायद इसी लिया सिर्फ एक पेड़ समझ रहे थे,
मैंने तो कुछ नहीं मांगा देने की फितरत थी हमारी ,
ऐसे चला दी आरी मानो हमारी ज़िन्दगी ही न हो हमारी,
हमें मिटाने वाले जरा ये सोच लिया होता ,
हम से ही है ज़िन्दगी तुम्हारी ये सोच के ही इस बेरहमी को रोक दिया होता,
सदियो से किये थे जो अहसान वो अहसान गिना रहे थे,
इसी लिये हर एहसान के बदले हमारे भाइयो पे आरी चला रही रहे थे,
लोग कहते है चला दो आरी दर्द नहीं होता है मैं कहता हूं,
सिर्फ आँखे नहीं भीगती दिल बहुत रोता है,
हमारी साँसे छीनने वाले सांस नहीं ले पाओगे ,
कर रहे हो जो अत्याचार बहुत पछताओगे,
हमारी ज़िन्दगी तो तबाह कर दी है अपनी भी नहीं बचा पाओगे,
मर जाएंगे मगर ये लोग हमारे अहसान नहीं भर पाएंगे,
मारने के बाद भी ये हमारी लकड़ियों से ही अपनी चिता जलाएंगे।