कुछ अल्फाज़ खरे ना उतरते हैं।
पेश है पूरी ग़ज़ल…
वक्त ए जलाल जो देखा मैने दूर काली सड़क पर।।
ओझिल-ओझिल सा लगे,,,
जैसे पिघला आफताब बह रहा हो उस जगह पर।।
आज खुदाई हुई मेहरबां बे मौसम इक दरख्त पर।।
हर शाख ही मुस्कुरा रही हैं,,,
जानें कहां से आ गए है कुछ परिंदे उस शजर पर।।
हाथ,पैर,आंख,कान सब शामिल होते है गुनाहों में।।
महशर में ये भी गवाही देंगें,,,
क्योंकि खुदा ने तैनात किया है इन्हें हर बशर पर।।
कुछ भी गलत लिखूं तो बराए मेहरबानी टोक देना।।
जरूरी नहीं कि अच्छे ही हो,,,
कुछ अल्फाज़ खरे ना उतरते है मेरी भी गजल पर।।
ताज मोहम्मद
लखनऊ