पेड़ की गुहार इंसान से…
मत मारो मुझे ,
मत काटो मुझे ,
बहुत दर्द होता है .
कुछ समझ नहीं पाता हूँ,
और ना ही समझा पाता हूँ,
ज़िंदगी हूँ मैं तुम्हारी और तुम मेरी ,
ना ही तुम्हें एहसास करवा पाता हूँ.
भला मेरी ह्त्या से तुम्हें क्या हासिल होगा ?
मैं नहीं रहूंगा तो तुम्हारा जीवन नष्ट होगा .
आज उजाड़ दोगे यदि मुझे और मेरा परिवार को ,
तो तुम्हारी नस्लों का भविष्य क्या होगा ?
सोचो तो सही तुम कर क्या रहे हो ?
मेरे किये गए निस्वार्थ सेवा और उपकारों के ,
बदले तुम मुझे मौत दे रहे हो .
मैं तुम्हें, फल- फूल , ओषिधि देता हूँ,
साँस लेने को साफ़ हवा देता हूँ ,
तुम अपने जीवन- संघर्ष से जब थक जाते हो ,
तो मैं तुम्हें अपनी छत्र- छाया में लेता हूँ.
तुम्हें सुख और आराम देने के लिए मैं
कड़ी धुप , बरखा और आंधिओं को सहता हूँ.
इतने कष्ट सहने के बावजूद भी अरे इंसान !
मैं तुम्हारे पत्थर की चोट भी सहता हूँ.
मैं तुम्हारी तरह इंसान ना सही ,
मगर दर्द तो मुझको भी होता है.
अपनी सन्तानो से प्राप्त चोट और उपेक्षा से ,
दुःख- संताप मुझे भी होता है.
हाँ ! मैं भी सजीव हूँ , निर्जीव नहीं.
अरमान है मेरे दिल में भी बहुत,
अफ़सोस !तुमने जिन्हें पहचाना नहीं.
निस्वार्थ सेवा ,प्यार ,सुरक्षा तुम्हें ,
अब तक देता आया हूँ .अब भी दूंगा,
मगर बदले में तुमसे कुछ माँगा भी नहीं.
उफ़ ! मेरी सहनशक्ति की कोई सीमा नहीं ,
तुमसे मिलते रहते यूँ तो कितने दर्द ,
मगर यह दर्द ,उस गम से कम नहीं ,
हूँ तो मैं हक़दार तुम्हारे प्यार ,सेवा और पनाह का ,
मगर मेरी तक़दीर में यह तमाम सुख नहीं.
चली ! कोई बात नहीं ! तुम मत दो अपना प्यार ,
मगर मुझे जीवित तो रहने दो .
इस पृथ्वी पर मुझे भी रहने का हक़ है,
मुझे इस पृथ्वी के छोटे से सही मगर रहने दो .
यह दर्द भरी गुहार है मेरी ,
यह एक प्रार्थना है मेरी ,
ऐ नादान इंसान !
मुझे मत मारो ,
मुझे मत काटो ,
मुझे बहुत दर्द होता है.