पेड़ और चिरैया
आती है चिरैया रोज
बैठती है पेड़ पर
चीं ची चीं करते जाने
क्या क्या कह जाती है ।
सुनता है पेड़ सब
धार उसे गोद में यूँ
जैसे कोई माँ लाल को
सुला गोद में जुड़ाती है।
गाती चिरैया वो
फुदक-फुदक डाल-डाल
और उन्हीं शाखों पर
फिर घोंसले बनाती है।
पेड़ समझ बैठता
चिरैया उसकी अपनी है
तभी तो सब ठाँव छोड़
नित पास मेरे आती है ।
फिर एक दिन चिरैया
ढूंढ लेती कोई नई ठांव
अब हर एक सांझ को
वो वहीं ठहर जाती है ।
पेड़ है स्तब्ध, मौन
कुछ समझ न पा रहा
उसकी वो चिरैया क्यों
अब पास नहीं आती है ?
उसने तो दिया था सब
जो भी उसके पास था
जाने कहाँ चूक हुई
समझ में न आती है ।