पेट की आग
जून का महीना था और तपती दुपहरी में रिक्शेवाला सवारी को खींचता हुआ उसको उसके गंतव्य स्थान तक पहुँचाने के लिए पैडल मारता हुआ पसीने से तर बतर हो रहा था। बार बार गर्दन पर लटके हुए तोलिए से माथा पोंछता और फिर तौलिए को एक झटके से गर्दन पर लपेट देता। तभी सवारी बोल उठी, ” अरे भैया, ज्यादा दिक्कत हो रही हो तो थोडा रूककर छाया में आराम कर लो फिर चल देना। इतनी गर्मी में क्यों परेशान हो रहे हो। क्या इतनी गर्मी में रोज रिक्शा चलाते हो?”
“जी साहब” जवाब मिला।
“अरे भैया, देखते नहीं हो आसमान से आग बरस रही है। मरना है क्या। दोपहर में आराम कर लिया करो। ”
“साहब आराम किसको अच्छा नहीं लगता। पर क्या करें पेट को तो रोटी चाहिए। आसमान की आग से तो बच जायेंगे लेकिन पेट की आग तो बुझानी पडेगी।उसका क्या? ” रिक्शेवाला के स्वर में दर्द था।
अशोक छाबडा