पूस की रात
पूस की रात और
कड़कती सर्दी
शमशीर समीर की
खेत के बीच की
अलाव चीरती
हाड़ तक सिहराती है
उम्मीद की गर्मी का ये कम्बल
और कुरेद आग अलाव की
सुनहरी भोर की बाट जोहती आँखें
पूरे चाँद के जादू में ये
कुछ ऐसा ही खो जातीं हैं
खिली खिली अनाज की बाली
चाँदी जैसी भातीं हैं ,
खलिहान चाँदी, फसल भी चाँदी
चाँदी ये पगडंडियाँ भी
भोर को जब जागेगा सूरज
धूप सुनहरी फैला देगा
खलिहान सोना हो जायेगा
काट फसल – रख कुठार में
बिछा के खटिया तब सो लूँगा
आज भी पूस की सर्दी
अलाव खेत का, सिहराती समीर,
चिटकती चिंगारी, फैला धुआँ
मेरे सपनों में आतीं है
सहसा मेरे खेत की ख़ुश्बू
मेरे कमरे को भर जाती है