“पूस की रात”
“पूस की रात” (संस्मरण)
पूस की उस काली रात को विस्मृत करना मेरे लिए कदापि संभव नहीं है।
बात, २७ दिसंबर २०१४ की है, शनिवार का दिन था। स्कूल में कुछ जरूरी काम रहने के कारण वहां से निकलते-निकलते शाम हो गई थी, वापस आने के क्रम में बाजार से कुछ सामान लेते हुए, मैं घर को आ रहा था, तभी रास्ते में ही मोबाइल पर मेरे छोटे भाई का दरभंगा से कॉल आया, पता चला कि हमारे बहनोई अब इस दुनिया में नहीं रहे। यह सुनते ही दिमाग शून्य सा हो गया। वैसे कुछ दिनों से तबियत खराब होने के कारण वे दरभंगा के एक निजी नर्सिंग होम आर. बी. मेमोरियल भर्ती थे। लेकिन, एक दिन पहले सूचना मिली थी कि वो ठीक हो चुके हैं। उनकी उम्र भी ज्यादा नहीं थी। बहुत ही अच्छे इंसान थे।
वो सदा हमारे बहुत ही प्रिय थे, मेरी हर बातों को मानते थे। हमसे उनका विशेष लगाव था।
समाचार सुनकर मेरे होश उड़ गए, जैसे-तैसे मैं घर आया।
मैं क्या करूं क्या नहीं, कुछ सूझ नही रहा था।
पूस का महीना होने के कारण ठंड बहुत थी, शाम में ही रात होने जैसा माहौल था। वहां दरभंगा में तत्काल उनके पास मेरा छोटा भाई, जो दरभंगा में ही कार्यरत था व छोटा भांजा और बहन थी।
मुझे बहुत पश्चाताप हो रहा था कि मैं वहां क्यों नही था, दिमाग में ये सताने लगा कि, अगर मैं होता तो उनको मरने नही देता।
चुंकि मुझे, अपने आप पर सदा से ये विश्वास है कि किसी काम को मैं सही तरीके से कर सकता हूं, मेरी देखरेख में कोई काम बिगड़ नही सकता।
ये सब मेरे दिमाग में चलने लगा की मैं ही दोषी हूं, चूंकि कुछ महीने पहले ही हम मधुबनी के भराम हाई स्कूल से कटिहार आ गए थे।
अब भी मैं जल्द से जल्द वहां पहुंचना चाहता था, लगता था कि कहीं मेरे जाने से वो फिर उठ बैठे। घर में भी सभी बहुत व्याकुल और दुखी थे ,इन सब बातों के बीच रात्रि के लगभग ८ बज गए थे मैं तुरंत रेलवे स्टेशन पहुंचा।
लेकिन दुर्भाग्यवश उस दिन सभी ट्रेनें काफी लेट थी।
५ घंटे बाद ही कोई ट्रेन मिल सकती थी। कटिहार से तुरंत निकलने का कोई रास्ता मुझे नहीं दिख रहा था, चूंकि पूस की वो भीषण ठंड और कुहासे ने रात्रि में पैर पसारना शुरू कर दिया था। रात्रि में तुरंत दरभंगा जाने वाला तत्काल मुझे नहीं मिला।
मैं बैचेन था जाने को,
तभी अचानक मेरी नजर मेरी बाइक पर पड़ी, बाइक भी साधारण सी थी , मत्र ९७ सीसी की पैशन प्रो, लेकिन मेरा बहुत ही विश्वसनीय। मैंने तय कर लिया कि इसी से जाऊंगा, मुझे अपने ड्राइविंग पर भी पूरा भरोसा था। आज अग्नि परीक्षा से गुजरना था उस कुहासे और पूस की भीषण ठंड में पूरी सड़क विरान होते जा रही थी। सब लोगों ने रोकने की काफी कोशिश की लेकिन मेरे अंदर उस समय एक विशेष शक्ति समाहित हो चुकी थी।
मुझे लगा मेरी प्यारी मां ने भी मौन सहमति दे दी है , चूंकि वो भी चाहती थी कि मैं वहां तुरंत जाऊं , लेकिन मेरे बाइक से जाने की पक्षधर भी नही थी। लेकिन मेरी मां को मेरे हर काम पर सबसे ज्यादा भरोसा होता था।
स्वेटर ,जैकेट पहनकर कुछ सामान डिक्की में रखकर , मैं तुरंत पेट्रोल पंप पहुंचकर गाड़ी की टंकी फुल कराकर निकल गया।
एक बार रोड के रास्ते से गर्मी के मौसम में सुबह अपनी बाइक द्वारा कटिहार से मधुबनी की यात्रा कर चुका था, इसीलिए रास्ते से वाकिफ था। मगर इस बार की बात कुछ और थी।
सारी विपरीत परिस्थितियां मौजूद थी, तुरंत निकलने के चक्कर में मेरे हाथ जो हेलमेट आया उसका आगे का शीशा भी काला वाला था , क्योंकि मैं प्रायः दिन में, धूप में ही गाड़ी चलाता था।
मेरी जिंदगी की सबसे कठिन सफर शुरू हो चुकी थी, या यूं कहें कि दुनियां की सबसे कठिन सफरों में से एक सफर ये भी थी।
पूर्णिया के रास्ते उच्च पथ तक तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा, लेकिन उसके आगे कुहासे का प्रकोप बढ़ते जा रहा था । कपकाऊं ठंड की तो बात ही अलग थी, मेरा वापस लौटना मुमकिन नहीं था, एक अलग जुनून सवार था।
सामने मन और दिमाग बहुत सारे पुरानी बातें नजर आने लगी थी।
अब आगे रास्ता भी दिखना बंद होते जा रहा था, पूरी सड़क विरान होते जा रही थी। जैसे- तैसे फारबिसगंज पहुंचा। वापस लौटने के लिए मोबाइल की घंटी अलग परेशान कर रही थी। अब रोड पर सिर्फ कभी-कभी कुछ ट्रक ही फोरलेन पर अचानक से निकलती तो देह सिहर जाता था।
फारबिसगंज के आगे जाना मुश्किल हो गया था। कुछ दिख नही रहा था ,क्या करूं ,क्या न करूं। लेकिन आत्मविश्वास था मेरे अंदर, कि मैं आगे जा सकता हूं।
पूरा जैकेट भी भींग चुका था कुहासे से , शरीर अंदर से कांप रहा था,जब मैं हेलमेट का शीशा को उपर करता तो ठंड और बढ़ जाती। फिर भी आगे देखना संभव नहीं था।
तब मैंने रोड की सादी पट्टी पर गाड़ी चलाना शुरू किया। मन में उठने वाले यादों विचारों के बीच मैं , ८0 किलोमीटर तक के रफ्तार से भागा जा रहा था। कोई डर नहीं मेरे मन में, सिर्फ एक डर को छोड़कर, कि कहीं बाइक धोखा न दे दे, या पंक्चर न हो जाए, क्योंकि कई किलोमीटर आगे-पीछे कुछ नहीं दिख रहा था।
लेकिन मैंने हार नही मानी, मुझे आज इस कठिन दौर को पार करना था।
रास्ते में ट्रक वाले भी अचंभित थे। अब मुझे अंदर से ठंड लगने लगी थी , “पूस की रात” की चरम थी वो।
सफेद पट्टी पर मोटरसाइकिल को भगाते हुए , कब हम कोसी महासेतु पार किए पता भी नही चला। फिर आगे:
अचानक से मुझे लगा कि मेरी बाइक कुछ गलत दिशा में जा रही है, मेरे पास एक सेकेंड का भी समय नहीं था संभलने के लिए, लगा बाइक किसी ऊंचाई पर चढ़ रही। मैने तुरंत दोनो हैंडल को और कसकर पकड़ लिया, कुछ भी हो गाड़ी को छोड़ना नहीं है, और कोई चारा नहीं था, सेकंड में संभलने का, फिर अचानक से बाइक ऊपर जाकर एक दो सेकंड में तेजी से नीचे सड़क पर ही छलांग मारती हुई आगे भागने लगी, मगर मैने अपनी पकड़ ढीली नहीं होने दी।
लगा मेरा बचने का निर्णय सही था।
असल में बाइक पैदल चलने के लिए बनाई गई फुटपाथ पर चढ़ गई थी।
मुझे लगने लगा था, आज कोई और मेरा साथ दे रहा है।
अब तक हम अपने मिथिलांचल के सीमा में प्रवेश कर चुके थे।
मेरे अंदर अब और साहस आ गया था।
क्योंकि अपने इलाके में घुस चुके थे, अब किसी से कभी सहायता मिल सकती है।
रात्रि के १ बज गए थे । अब मुझे लगा की पूस की इस शून्य से नीचे के तापमान में मुझे ठंड लग चुकी है। पूरा शरीर कांप रहा था। मगर लक्ष्य एक ही था, पहुंचना। लेकिन मुश्किल हो रहा था, अब मेरी नजर किसी ढाबे की खोज में लग गई। चाय पी कर कुछ बचाव हो, इसलिए, लेकिन पूस की इस जानलेवा ठंड में छोटा-मोटा ढाबा भी भला कोई क्यों खोले, आखिर ग्राहक क्यों आयेगा, जब सबकुछ विरान जैसा तो।
फिर आगे जाने पर एक बड़ा ढाबा दिखाई पढ़ा, मैने तुरंत गाड़ी वहां लगाई।
सात, आठ लोग वहां दिखे,
कोयले के चूल्हे की आग देखते ही जान में जान आई मैं वहां आग की गर्मी लेना लगा, मेरे मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी, सब बहुत चकित थे , मुझे देखकर तब तक मेरे लिए चाय बन चुकी थी, मैं पांच, छह कप चाय पीता गया। दस मिनट रुकने और आग सेकने के बाद मैं फिर आगे जाने लगा तब सब ने रोका की अभी रात के समय जाना ठीक नही होगा। आगे रास्ता सही नही। कुहासा भी बहुत है,कोई बाइक भी छीन सकता।
तब मैंने कहा , अब अपने इलाके में मुझे मत डराइए, मैं सब रास्ते पार कर के आया हूं।
मुझे पता चल चुका था की मैं सकरी के ढाबे में हूं।
और लगभग २४०किलोमीटर की यात्रा पूरी कर चुका हूं। फिर मैं आगे निकल गया।दो बजे के लगभग मैं दरभंगा पहुंच चुका था, फिर वहां से लहेरियासराय और फिर अस्पताल पहुंचा,,,वहां के गमगीन माहौल,,,को देख मैं अपनी यात्रा के कष्ट को भूल चुका था, लेकिन आगे मैं कुछ नहीं कर सका, सत्य को नही टाल सका,,,,
लेकिन “पूस की उस काली रात” से मैने हार नहीं मानी।
अब जब भी मैं उस रास्ते से किसी गाड़ी से गुजरता हूं ,
तो हमेशा पूस की उस रात की बात याद आ जाती है की आखिर मैंने कैसे उस रात की पूसी सफर को बाइक पूरा कर लिया था,,,,,,?
स्वरचित सह मौलिक
…..✍️ पंकज ‘कर्ण’
…………कटिहार।।