पूस की रात
माघ पूस की रात कैसे कटे
गर दे दे ये रूपया तू सहना को
तब कैसे खरीदे कम्मल ओढवे को
दे दे मुन्नी तीन रूपया सहना को ।
सुनो बात प्रिय, दे देना फसल पे
ठिठुरे हाड़ लो कम्मल ओढ़वे को
सनसनाती चले ठंडी पछुवा खेत पे
हल्कू ठिठुरे न कम्मल ओढ़वे को ।
पहले प्राण छुटाऊँ देकर तीन रूपया
बाद मैं खरीदूँ मैं कम्मल ओढ़वे को
अलाव जलाए हल्कू जबरा के संग
बीत रही रैन काँप -काँप अंग – अंग।
आहट सुन खेत चरते जानवरों की
जबरा हुआ सतर्क पर हल्कू बे हिम्मत
बर्फीली रात दोनों पड़े है सिकुड़े
फिर खेत देखने की कैसे करे जुर्रत ।
सिकुड़े तारे , सिकुड़ा था परिवेश
बार -बार देखे सोचे कब बीते रैन
लगी आँख हल्कू जबरा को आया चैन
मुन्नी ने आ देखा अन्न विहीन खेत ।
अब करे मजदूरी फसल से मिले न कुछ
रूखी – सूखी खाये तो भी लदे कर्ज
मुन्नी हल्कू कर रहे प्रभु से एक ही अर्ज
आ द्वार खरीखोटी न सुनाए कोई अब ।