पूछ रहा है मन का दर्पण
गीत….
पूछ रहा है मन का दर्पण,
पहले वाला गाँव कहाँ है।
पगडंडी पर पदचिह्नों को,
लिखने वाला पाँव कहाँ है।।
जीवन की यह आपाधापी,
हमको हर पल मोड़ रही है।
जाने क्या-क्या जोड़ रही है,
जाने क्या-क्या छोड़ रही है।।
देती थी जो तन शीतलता,
वह बागों में छाँव कहाँ है।
पूछ रहा है मन का दर्पण,
पहले वाला गाँव कहाँ है।।
सम्बन्धों के बंधन ढीले,
मन्द हुई मन की पुरवाई।
देख रहे हैं हम शंकित हो,
दरवाजे पर हर परछाई।।
प्रेम, समर्पण, भाई- चारा,
निर्मलता का ठाँव कहाँ है।
पूछ रहा है मन का दर्पण,
पहले वाला गाँव कहाँ है।।
आने को तो आता उत्सव,
सूने पर गीतों से रहते।
देख रहे हैं हम आँखों से,
संचित वैभव को यूँ ढ़हते।।
सूने उपवन ताल- तलैया,
हर्षाती वह नाव कहाँ है,
पूछ रहा है मन का दर्पण,
पहले वाला गाँव कहाँ है।।
पूछ रहा है मन का दर्पण,
पहले वाला गाँव कहाँ है।
पगडंडी पर पदचिह्नों को,
लिखने वाला पाँव कहाँ है।।
डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’
(बस्ती उ. प्र.)