*पुस्तक*
पुस्तक
पुस्तकें मेरी,
जब होती पास,
आता ना मुझे,
अतिरिक्त कुछ रास।
शिक्षक बन जाती,
मैं इनकी शिष्या।
लाती मुझमें
परिवर्तन,
जब करती पढ़ने का,
अथक प्रयास।
मित्र बन मेरी सहेली,
बन जातीं मेरी आशा।
अंध-तमस में,
करतीं दूर
मेरी निराशा।
है परिपूर्ण शब्दों का
सागर,
विभिन्न विचारों की गागर।
भरती मुझमे,
अभिव्यक्ति की आस।
पुस्तकें मेरी
जब होती पास,
आता न मुझे
अतिरिक्त कुछ रास।
खो जाती हूं
शब्द व्याकरण में,
कविताओं और
कहानियों में,
इनकी लघु कथाओं में।
बुझाती हैं ये,
ज्ञान की प्यास।
पुस्तकें मेरी,
जब होती पास।
आता न मुझे,
अतिरिक्त कुछ रास।
शिक्षा से मिलते,
नैतिक मूल्य।
समाज की,
कुरीतियों का,
पकड़ कर तूल।
देती हमें सद्भावना
और सभ्यता का ज्ञान।
तुलसी-कृत रामायण
पढ़ मिलते,
श्रीराम के आदर्श।
देती हमें गीता का सार,
धर्म की मार्गदर्शक बन,
बताती परिवर्तन
का मूल्य।
पुस्तक मेरी,
जब होती पास।
आता न अतिरिक्त,
मुझे कुछ रास।
शायद इन,
पुस्तकों ने ही
मुझे स्वयं से मिलाया है।
जीवन जीने का,
रास्ता मुझे दिखाया है।
दुख में भी
निडर हो।
बुराइयों से परे,
सम्मान के साथ,
जीना मुझे सिखाया है।
इसी कारण रखती हूं,
सदा इन्हें,
हृदय के पास।
पुस्तकें मेरी,
जब होती पास
आता ना मुझे,
अतिरिक्त कुछ रास।
डॉ प्रिया।