*पुस्तक समीक्षा*
पुस्तक समीक्षा
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सुमेर चंद की फारसी रामायण का हिंदी अनुवाद : रामपुर रजा लाइब्रेरी की अद्भुत देन
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समीक्षक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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मुगल शासन काल में फारसी के साहित्य को हिंदी में अनुवाद करने का कार्य तथा हिंदी और संस्कृत के साहित्य को फारसी भाषा और लिपि में अनुवाद करके प्रस्तुत करने का एक सुंदर क्रम आरंभ हुआ था। इसी कड़ी में सुमेरचंद ने संस्कृत में लिखी हुई वाल्मीकि रामायण को फारसी भाषा और लिपि में अनुवाद करके प्रकाशित किया। यह कार्य 1715 ईस्वी में मुगल बादशाह फर्रुखसियर के शासनकाल में हुआ । औरंगजेब की मृत्यु 1707 ईसवी में होने के उपरांत छोटे-छोटे कालखंड में जिन मुगल बादशाहों का शासन रहा, फर्रुखसियर उसमें से एक नाम था। 1713 ईसवी से 1719 ईसवी तक मात्र छह वर्षों का इस बादशाह का कार्यकाल रहा। लेकिन इसी कालखंड में सुमेरचंद की रामायण प्रकाशित हो गई। अध्ययन से पता चलता है इस पांडुलिपि के प्रकाशन को भारी सजधज के साथ प्रकाशित किया गया।
2010 में सुमेरचंद की फारसी रामायण का हिंदी भाषा में अनुवाद रामपुर रजा लाइब्रेरी के दो विशेष कार्याधिकारियों सर्वश्री प्रोफेसर शाह अब्दुस्सलाम तथा डॉ.वकारुल हसन सिद्दीकी के द्वारा किया गया । जब सुमेरचंद द्वारा अनुवाद की गई फारसी रामायण का हिंदी में अनुवाद प्रकाशित हुआ, तब डॉक्टर वकारुल हसन सिद्दीकी जीवित नहीं थे । उनको श्रद्धॉंजलि देते हुए प्रोफेसर शाह अब्दुस्सलाम ने पुस्तक की प्रस्तावना में 3 दिसंबर 2010 को लिखा :-
“इस हिंदी अनुवाद का कार्य मैंने (शाह अब्दुस्सलाम) पूर्व विशेष कार्याधिकारी स्वर्गीय डॉक्टर वकारुल हसन सिद्दीकी के साथ आरंभ किया था। दो वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद यह अनुवाद संपूर्ण हुआ था । इसके प्रकाशन में कुछ कारणवश बहुत देर हो गई । दुख की बात यह है कि डॉक्टर वकारुल हसन सिद्दीकी का अब देहांत हो चुका है और वह इस पुस्तक को प्रकाशित रूप में न देख सके।”
अनुवाद का कार्य मूल लेखन से किसी भी प्रकार से कम नहीं माना जाता है । जिस प्रकार वाल्मीकि रामायण का संस्कृत से फारसी भाषा में अनुवाद करके सुमेरचंद अमर हो गए, इसी प्रकार का अमरत्व सुमेरचंद की फारसी रामायण को हिंदी भाषा में अनुवाद करके प्रकाशित करने पर प्रोफेसर शाह अब्दुस्सलाम और डॉक्टर सिद्दीकी को प्राप्त हो चुका है ।
सुमेर चंद की रामायण भरपूर शान-शौकत के साथ शाही खजाने को दिल खोलकर खर्च करते हुए प्रकाशित हुई थी। सुमेरचंद के श्रमसाध्य कार्य को चार चॉंद लगाते हुए पुस्तक की पांडुलिपि में 258 रंगीन चित्र पांडुलिपि के 675 प्रष्ठों पर स्थान-स्थान पर अंकित किए गए हैं। प्रोफेसर शाह अब्दुस्सलाम के शब्दों में :- “प्रत्येक कांड के आरंभ में सोने के पानी तथा कीमती पत्थरों के रंगों के गुलबूटे और नक्शो-निगार से लौह (पृष्ठ का ऊपरी भाग) सजाई गई है।”
मूल पांडुलिपि कितनी चमकदार और आकर्षक रही होगी, इसका अनुमान सुमेरचंद की रामायण के हिंदी अनुवाद की पुस्तक को पढ़कर लगाया जा सकता है । इसमें एक ओर फारसी भाषा में मूल प्रष्ठ छपा हुआ है तथा दाहिनी और इसका हिंदी अनुवाद दिया गया है। विशेषता यह भी है कि जो चित्र जिस प्रकार से मूल पांडुलिपि में दिया गया है, वही चित्र उसी प्रकार से हिंदी अनुवाद में भी दर्शाया गया है ।
छपाई की क्वालिटी अच्छी होने के कारण पुस्तक का आकर्षण बहुत बढ़ गया है । वास्तव में देखा जाए तो सुमेरचंद की रामायण जहॉं एक ओर फारसी और संस्कृत भाषा के परस्पर मैत्रीपूर्ण संबंधों को रूपायित करती है, वहीं दूसरी ओर यह चित्र-कला प्रदर्शित करने का भी एक माध्यम बन गई है। इस तरह साहित्य और कला दोनों आयामों से सुमेरचंद की रामायण महत्वपूर्ण बन गई है । पुरानी वस्तुओं पर सोने के पानी का प्रयोग एक बहुतायत में पाई जाने वाली विशेषता रही है । चित्रकला में भी इसका प्रयोग पांडुलिपियों को आकर्षक बनाने के लिए किया जाता है । सुमेरचंद की रामायण इसका प्रमाण है।
सुमेरचंद की रामायण में रामकथा का केवल वह अंश है, जहॉं तक हनुमान जी सीता जी की खोज में समुद्र को पार करके लंका जाने का प्रयत्न कर रहे थे। अर्थात समुद्र पार करने में जो बाधाऍं उन्हें सुरसा तथा अन्य राक्षसों द्वारा प्राप्त हो रही थीं, उनसे जूझने के कार्य के वर्णन तक ही सुमेरचंद की रामायण का विस्तार है। इससे आगे की कथा क्यों नहीं लिखी गई, इस प्रश्न पर सुमेरचंद की रामायण में कोई उत्तर नहीं मिलता ।
सुमेरचंद की रामायण पवित्र बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम शब्दों के साथ आरंभ हो रही है। इससे सुमेरचंद की रामायण के प्रकाशन के कार्य में हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों का परस्पर आदर भाव प्रकट हो रहा है । राम कथा को आरंभ करने से पूर्व सुमेरचंद ने लिखा है :-
“यद्यपि यह बादशाह फर्रूखसियर का शासनकाल है, परंतु सदाचार और सभ्यता लोगों में कदापि नहीं है ।” वास्तव में यह किसी की प्रशंसा करने का एक तरीका है, जो सुमेर चंद ने अपनाया है। उनके कहने का परोक्ष तात्पर्य यह है कि बादशाह तो सदाचार और सभ्यता को महत्व देते हैं, लेकिन उनके शासनकाल में लोगों के बीच यह भाव विद्यमान नहीं है। ”
सुमेरचंद ने अपने समय का विश्लेषण करते हुए लिखा है :- “लोग क्रोध के अतिरिक्त कोई बात नहीं करते । अब तो शील और संकोच केवल दिखावे के लिए लोगों की ऑंखों में ही बसते हैं । इस तुच्छ लेखक ने कष्ट उठाया और वाल्मीकि रामायण के अर्थ को लिखा कि सारा संसार महान लोगों के स्वभाव और मानसिकता को याद करे।”
रामायण का संस्कृत से हिंदी में अनुवाद करना अपने आप में एक अत्यंत पवित्र कार्य रहा है । लेखक सुमेरचंद ने किस प्रकार से शुचिता का ख्याल रखते हुए अनुवाद का कार्य अपने हाथ में लिया, इसका वर्णन स्वयं अनुवादक सुमेरचंद के शब्दों में इस प्रकार है :-
“इस अनुवादित रामायण का लेखक सिद्धासन के तरीके पर आसन पर बैठा और वाल्मीकि रामायण को सामने रखा। कलमदान दाहिने हाथ की तरफ रख और ऊपर सफेद रेशम के वस्त्र पहने, जिस पर ‘राम’ लिखा हुआ था । उस वस्त्र का दो भाग अपने कमर के चारों तरफ लपेटा । ”
अनुवादक सुमेरचंद ने अपना सुंदर विश्लेषण किया है। वह लिखते हैं :-
“खुले बाल और सिर पर चोटी, मुख मंडल पर चेचक के दाग, चौड़ा और ऊॅंचा ललाट, नाक चौड़ी, कद मयम, दाढ़ी मूॅंछ लगाए, मूॅंछ के नीचे दो तिल, शरीर दुर्बल, पतला और क्षीण ।”
उपरोक्त चित्रण के साथ ही अनुवादक का चित्र भी इस पृष्ठ पर अंकित है। चित्र में मूंछ के नीचे दो तिल स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं । उपरोक्त शुचितापूर्वक अनुवाद कार्य करने से यह पता चलता है कि अनुवादक ने कथावाचक की भॉंति ही कथा-लेखन का कार्य भी वस्त्र आदि की शुद्धता को अपना कर किया है । दाहिनी तरफ ‘कलमदान’ रखे जाने की बात वर्तमान समय में आसानी से समझ में शायद न आए, लेकिन पहले जमाने में कलम, दवात तथा स्याही के तालमेल से लेखन कार्य होता था । कलम को दवात में रखी हुई स्याही में डुबो-डुबोकर पत्र पर लिखा जाता था । यह पद्धति 20वीं शताब्दी में भी प्रारंभिक दशकों तक चलती रही।
लेखक ने अपना नाम सुमेरचंद बताने के लिए अत्यंत काव्य-कुशलता का परिचय दिया है । उसे फारसी भाषा की गहराई से जानकारी है। “सनअते तामिया” का सिद्धांत उसे मालूम है। इस सिद्धांत के आधार पर फारसी भाषा में अनुवादक सुमेरचंद ने लिखा:-
“वाव व दाल व अलिफ व काफ नविश्तम दह व चंद नामे मन बूद बेतरतीब चू कर्रम पैबंद”
इसका अभिप्राय स्पष्ट करते हुए अनुवादक सुमेरचंद ने बताया कि फारसी भाषा के अक्षर वाव,दाल,अलिफ और काफ को दस बार तथा तदुपरांत ‘चंद’ शब्द लिखने के बाद जब व्यवस्थित रूप से इन्हें जोड़ा गया तो सुमेरचंद नाम बन गया। पुस्तक के हिंदी अनुवादकों ने इस बिंदु पर पाद-टिप्पणी में वाव, दाल, अलिफ और काफ अक्षरों को कई बार लिखने से जो संख्याऍ़ बनती हैं, उससे सीन, मीम, ये और रे शब्द बनना दिखाया है । इसी से सुमेरचंद -शब्द निर्मित हुआ । इस तरह फारसी भाषा में जो एक पहेलीनुमा तरीके से शब्द और उनके अर्थ ढूंढने का कार्य किया जाता है, यह इस विशेषता को दर्शाता है । अगर हिंदी अनुवादकों की पाद-टिप्पणी नहीं होती, तो फारसी भाषा की मर्मज्ञता से अनभिज्ञ सामान्य हिंदी पाठक नाम के खोजे जाने की इस गहराई तक तथा फारसी भाषा की इस अनुपमेय विशेषता की बात को नहीं समझ पाते।
सुमेरचंद की रामायण में साधारण तौर पर सरल हिंदी गद्य प्रयोग में आया है । अनुवादक सुमेरचंद ने भी “आरी” अर्थात सादी भाषा में ही फारसी में अनुवाद का कार्य संपन्न किया है। हिंदी अनुवाद में उचित प्रवाह है।
सुमेर चंद की फारसी में लिखी गई रामायण जितनी महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण कार्य रामपुर रजा लाइब्रेरी द्वारा इस फारसी कार्य को हिंदी में अनुवाद करके विराट फलक पर इसका प्रस्तुतिकरण है। इस दृष्टि से सुमेर चंद की फारसी रामायण के अनुवादक रामपुर रजा लाइब्रेरी के दो भूतपूर्व विशेष कार्याधिकारी विद्वान विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं।