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12 Nov 2022 · 5 min read

*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : आचरण की गंध (गीत संग्रह)
कवयित्री : डॉक्टर श्रीमती प्रेमवती उपाध्याय
ओम भवन, कृष्णापुरी, गली नंबर 2 ,विश्नोई धर्मशाला के पीछे, लाइनपार, मुरादाबाद
मोबाइल 94 12 21 49 42 तथा 98372 44350
प्रकाशक : सागर तरंग प्रकाशन डी-12 ,अवंतिका कॉलोनी, एम.डी.ए., मुरादाबाद 244001
मोबाइल 94118 09222 संस्करण : 2009
मूल्य : एक सौ रुपए
समीक्षक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
________________________
आचरण की शुद्धता का आग्रह करते डॉक्टर प्रेमवती उपाध्याय के सात्विक गीत
________________________
डॉक्टर प्रेमवती उपाध्याय के गीत संग्रह आचरण की गंध को पढ़कर भला किसका मन आह्लादित न हो उठेगा ! इन गीतों में ईश्वर के प्रति जहॉं एक ओर निश्छल भक्ति है, वहीं दूसरी ओर देह की नश्वरता और सहज जीवन-यात्रा की चाह के अनेक आयाम देखने में आते हैं । पग-पग पर “आचरण की गंध” के गीत मनुष्य को जीवन के पथ पर आशा और उल्लास का संबल प्रदान करते हैं । उसकी चेतना को विश्वव्यापी बनाते हैं तथा क्षुद्रताओं से परे एक विस्तृत गगन की सैर कराने के लिए मानो कहीं दूर ले जाते हैं । यह यात्रा इन गीतों की ही नहीं है, यह यात्रा हर उस व्यक्ति की है जो संवेदनशील है और अपने हृदय को किसी सीमा में बांधने के स्थान पर विराट दृष्टि से सोचने-समझने और स्वयं को उस विराटता में विलीन कर देने में रुचि रखता है।
पुस्तक का आरंभ ही एक चमत्कारी घटना के उल्लेख से होता है । डॉक्टर प्रेमवती उपाध्याय को एक रात्रि में स्वप्न में शांतिकुंज हरिद्वार के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा ने दर्शन दिए और एक विशेष कलम जिसका आकार आठ इंच से भी बड़ा था प्रदान किया और कहा इससे लिखा करो । पहली रात्रि को ही रचना-कार्य आरंभ हो गया । एक गीत प्रस्फुटित हुआ । शीर्षक बना “तू समर्पित हुआ”। गीत की आधारभूमि शरीर की नश्वरता है और उसी नश्वरता के सहारे साधक को गगन की अनंत ऊंचाइयों को छूना है । इसलिए कवयित्री का कथन है :-

रुप यौवनमयी-देह की रंजना, वस्तुतः पंचभूतीय आधार है
ये हरित टहनियॉं पीत बन जाऍं कब
इन बहारों का कोई भरोसा नहीं
तू समर्पित हुआ व्यर्थ जिनके लिए
इन सहारों का कोई भरोसा नहीं
(पृष्ठ 47-48)
देह की नश्वरता पुस्तक का प्राण है । नश्वरता का बोध कवयित्री को शाश्वत जीवन मूल्यों की ओर अग्रसर करता है। इसीलिए तो वह “निहारो पथ न औरों का “ शीर्षक गीत में लिखती हैं :-

तुम्हें वैभव मिला है तो
बनो विनयी-सदाचारी
फलों से है लदे तरुवर, झुके उनके भी सर देखो
(पृष्ठ 64)
ईश्वर-भक्ति एक तरह से पुस्तक के गीतों का केंद्र बिंदु कहीं जा सकती हैं । कई प्रकार से यह ईश्वरीय चेतना इन गीतों में उभर कर सामने आ रही है । राम के नाम पर अत्यधिक बल देने की भावना ने व्यक्ति को राममय होने के लिए प्रेरित किया है । काव्य की सुरभि इस पुरातन विचार से मेल खा रही है :-

जगत में सब केवल हैं ‘राम’
जिसने लिया सहारा इनका, बनते बिगड़े काम
(प्रष्ठ 62)
यह तो हुई राम का नाम लेने से संसार की बाधाओं को दूर करने का प्रयोग, लेकिन ईश्वर-भक्ति का एक रूप वह है जिसमें भक्त स्वयं को ईश्वर में विलीन कर देना चाहता है और अपना अस्तित्व शेष रखने का भी अभिलाषी नहीं है । डॉक्टर प्रेमवती उपाध्याय के गीतों में ईश्वर-भक्ति का यह सर्वोच्च शिखर बहुत मार्मिक रूप से देखने को मिलता है । इससे समूची गीत-धारा ही पवित्र हो गई है :-

जनम जनम की प्रीत अनूठी
कर देना मत प्रभु जी झूठी
अबकी बार मिलो तुम ऐसे
मैं अपना अस्तित्व भुलाऊॅं
(प्रष्ठ 66)
जीव भी परमात्मा का ही अंश है और अंश ईश्वर में या तो विलीन होना चाहता है या फिर ईश्वर के दर्शन का अभिलाषी होता है । दूरी इस प्रक्रिया में असह्य होती है । वियोग की यह पीड़ा भक्ति में अत्यंत पवित्र मानी गई है । “आचरण की गंध” में इसकी एक झलक देखने योग्य है :-

मैं तुम्हारा अंश हूं फिर
दूर क्यों तुमसे रहूॅं
इस तरह दुख दूरियों का
मैं भला क्यों कर सहूॅं
तुम कहॉं अदृश्य हो,
दो दर्श यह है याचना
(पृष्ठ 56)
मनुष्य के जीवन में अगर प्रेरणा न हो तो जीवन बोझिल हो जाता है । वह स्वयं अपने ही भार को ढोता रहता है । “आचरण की गंध” का कवि एक ऐसे मनुष्य और ऐसे समाज के निर्माण का पक्षधर है, जो भीतर से सुवासित हो और जगत को अपनी शक्तियों का सहयोग प्रदान करके एक श्रेष्ठ समाज-रचना में अपना योगदान दे सके। इस दृष्टि को कई गीतों में स्वर मिला है । पुस्तक का आवरण गीत “आचरण की गंध” का एक छंद इस दृष्टि से अत्यंत प्रेरणादायक कहा जा सकता है :-

मानवी संबंध को भी
हम कभी भूलें नहीं
प्राप्त कर वैभव विविध
मद-मान में फूलें नहीं
हों समर्पित सर्वहित में, संतुलित यौवन-जरा
आचरण की गंध से कर दें, सुवासित यह धरा
(प्रष्ठ 72)

मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली भावनाओं का प्रसार ‘आचरण की गंध’ की एक ऐसी खुशबू है, जिससे कलम तो क्या पूरी सृष्टि महक उठती है ।
निश्चित हमें मिलेगी मंजिल -इस गीत-शीर्षक से मनुष्य मात्र को सदाचार और सद्विचार की प्रेरणा कवयित्री ने दी है । यदि इन पर अमल किया जाए तो निश्चित ही एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण हो सकेगा :-

मन दर्पण पर छा जाती है
दुश्चिंतन की धूल स्वत:
हो जाता है भ्रमित मनुज मन
हो जाती है भूल स्वत:
सत् चिंतन के पावन जल से,
धो लें इसको अभी यहीं
जाना नहीं ढूंढने हमको , राह मिलेगी यहीं कहीं
(पृष्ठ 35)

मां के संबंध में भी एक अच्छा गीत काव्य-संग्रह में है। विशेषता इसकी यह है कि सहज परिकल्पना से मॉं के चरित्र की विशेषताओं को कवि ने चित्रित किया है । सचमुच यह चित्रण किसी एक मॉं का न होकर सृष्टि की प्रत्येक मां का है :-

मॉं का बस चलता तो चंदा
नभ से धरती पर ले आती
अनगिन तारागण वह अपने
सुत की ॳॅंगुली में टकवाती
(पृष्ठ 69)
पर्यावरण पर भी एक गीत कवयित्री ने बहुत सुंदर और जानकारी से भरा लिखा है। यह जरूरी है :-

बेल, ऑंवला, नीम व जामुन, करते रोगों का उपचार
यह मानव के परम हितैषी, यह करते हम पर उपकार
(पृष्ठ 61)
वैसे तो संग्रह का मूल स्वर सकारात्मक ही है लेकिन उस सकारात्मकता में यह आवश्यक हो गया है कि कवयित्री इस बात का भी आकलन करे कि समाज में गलतियॉं कहॉं-कहॉं हो रही हैं, तभी तो उन्हें ठीक किया जा सकता है । इस सुधारवादी दृष्टि से जो गीत लिखे गए हैं, उनमें एक गीत संबंधों का मर्म खो गया -शीर्षक से कवयित्री लिखती हैं :-

माताऍं अपने बच्चों को
दूध पिलातीं बोतल से
और भावनाएं सुस्तातीं
दूर हटीं वक्षस्थल से
अनजाने में क्या-क्या खोया,
उस मॉं को मालूम नहीं
(पृष्ठ 37)
एक अन्य गीत में समाज में चतुर्दिक हो रहे क्षरण की ओर कवि की दृष्टि गई है और उसने जो देखा, उसे ज्यों का त्यों लिख दिया । कितना सटीक चित्रण है:-

व्यक्तिवाद की ऑंधी आई,
झगड़ रहा भाई से भाई
हंस पलायन नित्य कर रहे
और बको ने भीड़ लगाई
वे गौरव के शिखर छू रहे,
जिनका कुछ इतिहास नहीं है
मौसम पर विश्वास नहीं है
(प्रष्ठ 42)
आशा की जानी चाहिए कि “आचरण की गंध” के गीत व्यक्ति के अंतर्मन को पवित्र करने में सहायक सिद्ध होंगे । समाज में व्याप्त विकृतियों को दूर करके हृदय की विशालता और विराटता का स्पर्श इन गीतों से हो सकेगा। गीतों की भाषा शुद्ध और सरल हिंदी है । लोक भाषा-बोली के शब्दों का प्रयोग करने से कवयित्री ने कहीं कोई परहेज नहीं किया है । इससे अभिव्यक्ति प्रभावशाली और सर्वग्राह्य हो गई है। भाव आसानी से पाठकों तक पहुंच रहे हैं । न समझने में कोई कठिनाई है और न समझाने में इन गीतों के रचयिता को कोई दिक्कत आई होगी।

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