पुस्तक समीक्षा-जीने का हक ‘कहानी-संग्रह’
कथाकार : रामगोपाल राही
इक्कसवीं सदी को पार करते हुए आज भी काफी स्थानों पर अट्ठारहवीं सदी की रूढि़वादी संस्कृति में नारी को सबला नहीं बल्कि अबला समझा जाने की परम्परा दिखाई पड़ती है।
कुछ ऐसी नकारात्मक सोच को सकारात्मक सोच में परिवर्तित करने के प्रयास से वरिष्ठ साहित्यकार रामगोपाल राही ने ‘जीने का हक’ कहानी-संग्रह पुस्तक की रचना की है।
उक्त कहानी-संग्रह में लेखक ने कुल सौलह कहानियों को संजोया है, जो लगभग सभी नारी-जीवन के उतार-चढ़ावों पर आधारित हैं। कहीं बेटी तो कहीं पत्नी, कहीं उम्रदराज सास तो कहीं ग्रामीण-शहरी परिवेश दिखाई पड़ता है। प्रथम कहानी ‘जीने का हक’ में बेटी को मारने नहीं, बल्कि समाज में आगे बढ़ाने का संदेश है, जहाँ पुरानी रूढि़ता के चलते लोग बेटी को जन्म से मार देते थे, वहाँ उन्हें एक शिक्षित दम्पत्ति बेटी की अहमियत बताता है।
मनोज अरोड़ा
लेखक, सम्पादक एवं समीक्षक
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