*पुष्पवान के ठाठ*, पीत पात सब झर गए
पुष्पवान के ठाठ
मनसिज, मनमथ आ गए, सुन फागुन के गीत,
सुधियों ने अंँगड़ाई ली, कसक उठी है प्रीत।
कोयल स्वागत गा रही, लग्न बांँचते मोर,
टेसू महावर ले खड़े, मादकता चहुंँ ओर।
पुरवईया बहती, कभी, पछुआ दौड़ लगाए,
बौराए से चित्त को, वो फिर-फिर दुलराए।
कलियांँ शर्माई खड़ीं, विकच रहे हैं फूल,
महुआ झरकर कह रहा, रहे हृदय न शूल।
रूप, रंग, रस गंध की, सजी हुई है हाट,
पंच शरों संग, खिल उठे, पुष्पवान के ठाठ।
————
# पीत पात सब झर गए
खेतों में सरसों खिली, हुए खेत सब पीत,
नीलांबर संग वसुंधरा, सजती ज्यों मनमीत।
खेतों का वैभव फसल, लहराती चहुंँओर,
बीच-बीच में पुष्प भी, मुस्का करें विभोर।
नूतन रूप दिखा रही, प्रकृति नटी अविराम,
लता, विटप सब झूमते, मनमोहक अभिराम।
नव कोंपल, किसलय नवल, नवल वृक्ष का गात,
नव विकास, इतिहास नव, नूतन नवल प्रभात।
नेह साधते सध गई, जीवन की हर साध।
इस जीवन के मूल में, स्वीकृति, प्रेम अगाध।
पीत पात सब झर गये, ज्यों अँखियन से नीर,
जग कहता यह रीत है, कहांँ समझता पीर।
—इंदु पाराशर——————-