पुरूष हूँ !
पुरूष हूँ !
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पुरूष हूँ !
कोई पत्थर तो नहीं !
मुझमें भी है …
एहसास !
निर्मलता !
और मानवता |
सदियों से ही
कहते आए हैं
कि समाज…….
पुरूष प्रधान है !
लेकिन क्या ?
देखा भी है —
झाँककर कभी
उसके अंतस में |
कितना कुछ है….
उसके भीतर —
धैर्य !
विश्वास !
कर्मठता !
लगन !
मेहनत !
जिम्मेदारी !
सहनशीलता !
कर्तव्यपरायणता !
इत्यादि-इत्यादि ||
कौन कहता है ?
मर्द को दर्द नहीं होता !
होता है………..
दर्द भी और संताप भी !
जब खेला जाता है
उसके दिल से
छुप-छुप कर !
कहते हैं ………
दिल नहीं पत्थर है !
नर के सीने में |
किसने देखा ?
कब देखा ?
कहाँ देखा ?
क्यों देखा ?
आखिर कोई तो बताए ??
पूर्ण करता है पुरूष भी
अपनी हर जिम्मेदारी
इत्तमिनान से……….
बिना कुछ उफ किए !
सहता भी है !
पर ! कहता नहीं |
बस ! जीता है
अपनों के लिए…..
हाथ बंटाता है निकेत-कर्म में
सदैव चुपके-चुपके !
पर वो दिखता नहीं
सार्वजनिक तौर पर !
क्यों कि ?
वह करता है…….
तन-मन-धन से ||
जब भी घटित होते हैं
अमानवीय और नृशंस कुकृत्य
सारा पुरूष-वर्ग ही दोषी बनता है |
मानता हूँ …………….
कुछ नीच-अधम-पापी हैं
हमारे बीच में ,
जो कलुषित करते हैं
पुरूष और मानवता को ||
मिलते हैं — अपवाद !
देश-काल-वातावरण में
हर वर्ग में ………..
लेकिन इसका मतलब
यह तो नहीं —
कि प्रत्येक पुरूष
अमानुष है !
राक्षस है !
आतताई है !!
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— डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”