पुरुष
पुरुष स्त्री के भांति ही, रखता रूप अनेक।
जनक पिता का रूप भी, उसमें से है एक।।
बेटा भाई पति पिता,कई पुरुष के रूप।
देता सब को छाँव जो, खुद जलता है धूप ।।
बाहर से होता कड़क, अंदर से है नर्म।
जान हथेली पर रखे, मगर निभाता धर्म।।
आह नहीं भरता कभी,लाख उसे हो दर्द ।
दिल को पत्थर कर लिया,तब बनता है मर्द।।
लाख मुश्किलों से घिरे, होता नहीं उदास ।
इस पूरे परिवार का,एक वही है आस ।।
नहीं किसी के सामने, रोता है चुपचाप ।
बन जाता पाषाण सा, सह कर सारे ताप।।
तुम हीरो बन कर रहो, नहीं खून है जर्द।
नयन नीर छलके नहीं,तभी बनोगे मर्द ।।
मर्दों में होता नहीं क्या कोई जज्बात।
लड़की-सा रोना नहीं,ये है कैसी बात।।
बन कर रहना पुरुष भी, कब होता आसान।
दर्द उसे होता बहुत, वो भी है इंसान । ।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली